आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 17 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

विकास के लिए विज्ञान

वैज्ञानिकों की सामाजिक भूमिका पर जोर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैज्ञानिकों से कहा है कि वे आम लोगों के हित में अनुसंधान करें। इंफाल में आयोजित 105 वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि वक्त आ गया है जब रिसर्च एंड डिवेलपमेंट की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। इसे अब रिसर्च फॉर डिवेलपमेंट कहा जाए मतलब विकास के लिए अनुसंधान। उन्होंने कहा कि विज्ञान का मकसद समाज की तरक्की और जनकल्याण है। आज इस बात की जरूरत है कि वैज्ञानिक अपनी उपलब्धियों को समाज तक पहुंचाएं जिससे युवाओं में वैज्ञानिक सोच का विकास हो। इन बातों से उम्मीद बंधती है कि सरकार देश में शोध और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए कारगर योजनाएं लाएगी। यही नहीं स्कूलों के स्तर पर भी विज्ञान की पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारेगी। आज कई देशों ने विज्ञान और तकनीक के सहारे तेजी से तरक्की की है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन है। लेकिन यह हासिल करने के लिए इसने बुनियादी स्तर से ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर जोर दिया, शोध और अनुसंधान पर भारी निवेश किया। हमारे यहां स्कूली स्तर पर विज्ञान की पढ़ाई का हाल बहुत अच्छा नहीं है। 1964-65 में बने कोठारी आयोग ने पहली बार सुझाव दिया था कि कक्षा दस तक सभी लड़के और लड़कियां विज्ञान और गणित अनिवार्य रूप से पढ़ेंगे। उसके बाद के दस-पंद्रह वर्षों में यह सारे देश में लागू भी हो गया, मगर उसके लिए जरूरी सुविधाओं और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया। निजी स्कूलों में स्थितियां कुछ बेहतर हैं, पर सरकारी स्कूलों में हालत बदतर है। वैज्ञानिक प्रयोगों के नाम पर वहां केवल खानापूर्ति होती है। जहां तक रिसर्च की बात है तो अनेक आईआईटी की स्थापना तकनीकी शोध को बढ़ावा देने के मकसद से की गई थी ताकि देश के विकास के लिए जरूरी टेक्नॉलजी तैयार हो सके और भारत सही अर्थों में आत्मनिर्भर बन सके। लेकिन आज एक तरफ ये संस्थान अमेरिकी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए सस्ते प्रफेशनल्स सप्लाई कर रहे हैं, दूसरी तरफ आईएएस के रूप में देश को काफी सारे नौकरशाह दे रहे हैं, जिनका तकनीकी विकास में रत्ती भर योगदान नहीं होता। शोध के लिए बने इन संस्थानों के अपने मूल उद्देश्य से अलग होने की वजह से ही भारत रिसर्च में पिछड़ता चला गया। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का योगदान नौ फीसद था, जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। शोध और अनुसंधान को लेकर जो छात्र थोड़ा भी गंभीर होते हैं, वे विदेश का रुख कर लेते हैं। विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए कुछ ठोस उपाय करने होंगे। स्कूल स्तर से लेकर ऊपर तक इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना होगा और शोध की आकर्षक परियोजनाएं शुरू करनी होंगी ताकि यह एक आकर्षक करियर का रूप ले सके।


जनसत्ता

आरोप और माफ़ी

आम आदमी पार्टी और उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल चूंकि ईमानदारी और स्वच्छता के नए प्रयोग के दावे और वादे के साथ राजनीति में उतरे थे, इसलिए लोगों को उनसे उम्मीद रही कि वे किसी झूठ या अफवाह के सहारे अपनी सियासत चमकाने में विश्वास नहीं करते होंगे। ऐसी ही धारणाओं से बनी उनकी छवि के बूते दिल्ली की राजनीति में उन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिला और वे सत्ता में हैं। लेकिन समय बीतने के साथ आम आदमी पार्टी के कई नेताओं के साथ-साथ खुद उनके बारे में भी जिस तरह की खबरें आ रही हैं, वे उनके दावों के प्रति लोगों को निराश करती हैं। ताजा मामला पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से अरविंद केजरीवाल के माफी मांगने से जुड़ा है। गौरतलब है कि उन्होंने पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान मजीठिया को मादक पदार्थों के तस्करों का सरगना कहा था। हालांकि उस समय उनके पास इस आरोप के क्या आधार थे, यह साफ नहीं है। कई बार एक-दूसरे पर इस तरह समान आरोपों की होड़ में मामला दब जाता है। मगर केजरीवाल के गंभीर आरोप के बाद मजीठिया ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था। जाहिर है, तब केजरीवाल के सामने दो ही विकल्प बच गए थे। या तो वे अपने आरोप का आधार या उसके पक्ष में सबूत पेश करें या फिर माफी मांगें।

उन्होंने दूसरा रास्ता चुना। गुरुवार को बाकायदा लिखित माफीनामे में केजरीवाल ने मजीठिया से कहा है कि वे सभी आरोप बेबुनियाद निकले और इसलिए वे माफी मांगते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि गलती का अहसास होने पर माफी मांग लेना शालीनता का परिचय देता है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हड़बड़ी में लगाए जाने वाले किसी आरोप से दूसरे पक्ष को कई बार व्यापक नुकसान हो सकता है? फिर, यह भी संभव है कि अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की बातों के साथ खड़े होकर स्थानीय नेता या कार्यकर्ता जनता से समर्थन मांगते हों। लेकिन कुछ समय बाद अपने नेता को अचानक अपनी बातों से पलटते देख कर उनके बीच क्षोभ पैदा हो जाए। यह बेवजह नहीं है कि अरविंद केजरीवाल के मजीठिया से माफी मांगने के बाद उनकी अपनी ही पार्टी में तीखे मतभेद उभर आए। जहां पंजाब में पार्टी का नेतृत्व संभालने वाले और विधानसभा में विपक्ष के नेता सुखपाल सिंह खैरा ने सवाल उठाया कि जब एसटीएफ ने हाइकोर्ट में मजीठिया के खिलाफ मादक पदार्थों के मामले में ठोस सबूत होने की बात कह दी, उसके बाद इस माफीनामे के बारे में समझना मुश्किल है। कई अन्य नेताओं ने अरविंद केजरीवाल को इसके लिए कठघरे में खड़ा किया है।

हालांकि राजनीति की दुनिया में ऐसे मामले भी देखे गए हैं कि महज तात्कालिक फायदे के लिए अपने प्रतिपक्षी नेता के बारे में किसी अफवाह को तथ्य की शक्ल देकर प्रचारित कर दिया जाता है, जिसकी वजह से उसके राजनीतिक जीवन पर गंभीर असर पड़ता है। बाद में अगर वे आरोप गलत निकलते भी हैं तो उससे पहले के नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती। गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी के कई नेताओं पर मानहानि सहित कई तरह के मामले दर्ज हैं और उसमें केजरीवाल सहित कई नेताओं को काफी वक्त बर्बाद करना पड़ रहा है। इसलिए पार्टी ने इन मामलों को निपटाने का फैसला किया है। सवाल है कि वैकल्पिक राजनीति की दुहाई देकर जनता के बीच लोकप्रिय होने वाले अरविंद केजरीवाल या उनके सहयोगी अगर अपने ही आरोपों को लेकर स्पष्ट और ठोस नहीं होते हैं, तब उन्हें ऐसी बातें करने की हड़बड़ी क्यों होती है!


हिन्दुस्तान

नायडू का दांव

आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न मिलने के तर्क पर चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी ने आखिर एनडीए से नाता तोड़ लिया। पार्टी ने केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की ताल भी ठोक दी है। एनडीए सरकार पर इसका कोई असर भले न पड़े, लेकिन हालिया उपचुनाव के नतीजों, खासकर उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर तथा बिहार के अररिया में भाजपा की करारी हार के बाद आगामी चुनावों के मद्देनजर इसने विपक्ष को माहौल गरमाने का सामान तो दे ही दिया है। कहना न होगा कि नायडू खासी जल्दबाजी में हैं और विशेष राज्य के मामले में वह किसी और को कोई मौका नहीं देना चाहते। तब तो और भी नहीं, जब वाईएसआर कांग्रेस के रूप में एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी सामने हो, जिसके नेता जगनमोहन रेड्डी पहले से नाराज राज्य की जनता को यह बताने में सक्रिय हों कि चार साल तक केंद्र और राज्य, दोनों की सत्ता में रहने के बावजूद नायडू राज्य को कुछ नहीं दिला सके। रेड्डी की यह सक्रियता नायडू के गले की फांस बन गई है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके गठबंधन के वोट शेयर और वाईएसआर कांग्रेस के वोट शेयर में महज ढाई फीसदी का अंतर भी उन्हें बेचैन कर रहा है। जाहिर है, नायडू न तो वाईएसआर को कोई मौका देना चाहते हैं, न ही जनता को यह सवाल पूछने का मौका कि केंद्र का पिछलग्गू बनने के बावजूद वे राज्य को कुछ दिला क्यों नहीं सके? ऐसे में सरकार और गठबंधन से नाता तोड़ना ही सबसे आसान तरीका था।

आंध्र की राजनीति में यह सब नया नहीं है। नायडू वही कर रहे हैं, जो कभी उनके ससुर और राजनीतिक गुरु एनटी रामाराव किया करते थे। अस्सी के दशक में भारतीय राजनीति के आकाश पर आने वाले एनटीआर राज्य में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाने के साथ ही राज्य के हितों की दिल्ली से उपेक्षा को हथियार बनाने में सफल रहे थे। नायडू भी अब उसी राह हैं। उन्हें भी यह हथियार जनता को भावनात्मक रूप से लुभाने वाला दिख रहा है। यह अलग बात है कि बदले वक्त में जनता को लुभाना शायद उतना आसान नहीं रहा। जगनमोहन रेड्डी का इस मुद्दे पर आक्रामक होना उनकी मुश्किलें बढ़ा रहा है। ऐसे में, नायडू ने एनडीए से नाता तोड़कर बड़ी राजनीतिक चाल भले चली हो, उनके लिए जनता को समझाना आसान नहीं होगा कि उपेक्षा के इस माहौल में वह चार साल खामोश क्यों रहे और उन्हें इसकी याद तब क्यों आई, जब राज्य के चुनाव सिर पर आ गए?


अमर उजाला

राजनीतिक मजबूरियां

चार वर्ष पूर्व आम चुनाव के समय फरवरी, 2014 में आंध्र प्रदेश के पुनर्गठन के लिए दिखाई गई तेजी के पीछे यदि राजनीतिक मजबूरियां जिम्मेदार थीं, तो अब विशेष राज्य के दर्जे के मुद्दे पर भी कम राजनीति नहीं हो रही है। अव्वल तो चंद्रबाबू नायडू की अगुआई वाली तेलुगू देशम पार्टी या फिर जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के द्वारा लाए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव को भले ही तमाम विपक्षी दलों का समर्थन मिल जाए, मोदी सरकार को किसी तरह का खतरा नहीं हैं। तेदेपा के एनडीए से नाता तोड़ लेने के बावजूद अभी भाजपा के ही 274 सांसद हैं। जाहिर है, इस घटनाक्रम के पीछे के राजनीतिक निहितार्थ को समझना जरूरी है। आंध्र प्रदेश के राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी पीड़ा यह रही है कि विभाजन के बाद सर्वाधिक राजस्व देने वाला हैदराबाद तेलंगाना के हिस्से में चला गया। इसकी भरपाई के लिए तेलुगू देशम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग करती रही हैं। अब ऐसे समय जब लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक वर्ष रह गए हैं, तेदेपा के पास इस मुद्दे पर एनडीए से नाता तोड़ने से बेहतर शायद कोई विकल्प नहीं रह गया था, जिसके जरिये वह खुद को पीड़ित की तरह पेश कर सकेगी। यह भी दिलचस्प है कि तेदेपा और वाईएसआर कांग्रेस दोनों विशेष दर्जे की मांग तो कर रही हैं, लेकिन राज्य की राजनीति में वह खुद को एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी के तौर पर भी पेश करना चाहती हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार का यह कहना सैद्धांतिक रूप से ठीक हो सकता है कि चौदहवें वित्त आयोग में विशेष राज्य के दर्जे जैसा कोई प्रावधान ही नहीं है, लिहाजा वह तेदेपा की मांग पूरी नहीं कर सकती। होना तो यह चाहिए कि राज्य इतने सक्षम और आत्मनिर्भर बनें कि उन्हें केंद्र की बैशाखी की जरूरत न हो और इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है, तभी सहकारी संघवाद व्यावहारिक रूप ले सकेगा। हैरानी नहीं होनी चाहिए कि चंद्रबाबू के बाद अब नीतीश कुमार ने भी बिहार को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग फिर से छेड़ दी है। इन सबके बीच एनडीए खासतौर से भाजपा के प्रबंधकों से यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों वे अपने एक पुराने सहयोगी को जोड़कर नहीं रख सके; उनसे गठबंधन धर्म निभाने में कहीं कोई चूक तो नहीं हो गई!


दैनिक भास्कर

सरकार के खिलाफ पहले अविश्वास प्रस्ताव का अर्थ 

यह बात शीशे की तरह साफ है कि वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और तेलुगु देशम के अविश्वास प्रस्ताव से नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं गिरनी है लेकिन, इससे एनडीए की दरार उजागर होगी और विपक्षी एकता का माहौल जरूर निर्मित होगा। यह माहौल हाल के उपचुनावों में भाजपा की हार के बाद चल रही महागठबंधन की चर्चा के संदर्भ में और भी मौजूं हो जाता है। हालांकि अभी प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ है और लोकसभा की स्थगित कार्रवाई अब सोमवार को ही शुरू हो पाएगी, इसके बावजूद मौजूदा सरकार के विरोध में उन सभी दलों का साथ आना एक घटना जरूर है जो राज्यों में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने कहा भी है कि हमेशा की तरह तेलुगु देशम ने उसके निर्णय का अनुकरण किया है। ये दोनों पार्टियां आंध्र प्रदेश में एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हैं और राज्य के विशेष दर्जे के लिए मोदी सरकार का विरोध करते हुए स्थानीय जनता का विश्वास जीतना चाहती हैं। उधर तृणमूल कांग्रेस और माकपा ने भी प्रस्ताव का समर्थन करने का वादा करके पश्चिम बंगाल की अपनी प्रतिद्वंद्विता को किनारे कर दिया है। देखना है कि समाजवादी पार्टी जिसके लोकसभा सदस्यों की संख्या अब सात हो गई है वह क्या फैसला लेती है। अब सवाल यह है कि शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का रुख क्या है। वे पार्टियां एनडीए का हिस्सा होते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी के रवैए से नाराज बताई जाती हैं। इस बीच अन्नाद्रमुक ने कावेरी प्रबंधन बोर्ड की मांग उछालते हुए सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उसने बोर्ड का गठन नहीं किया तो वह भी विरोध में मतदान करेगी। देखा जाए तो टीडीपी-वाईएसआर सीपी और अन्नाद्रमुक की मांगें एक प्रकार से चुनावी मौके पर की जाने वाली सौदेबाजी की रणनीति ही हैं। संसदीय कार्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक ही कहा है कि यह चुनावी वर्ष है और ऐसा विरोध व अविश्वास प्रस्ताव परंपरा का एक हिस्सा है। जाहिर है कि भाजपा अपने संख्या बल और संगठन के माध्यम से ऐसी चुनौतियों से निपटने में सक्षम है। फिर भी एनडीए के घटक दलों की ओर से लगाए जाने वाले आरोप मौजूदा सरकार की छवि ज्यादा तेजी से बिगाड़ेंगे। मौजूदा सरकार के चार साल के कार्यकाल के इस पहले अविश्वास प्रस्ताव से कई दलों की झिझक टूटेगी और वे आगामी चुनाव के लिए अपने दोस्त और दुश्मन का फैसला कर सकेंगे।


राजस्थान पत्रिका

एनडीए से जुदा टीडीपी

बेमेल गठबंधन का हश्र वही होता है जो भाजपा और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के गठजोड़ का हुआ। सत्ता की चाहत में एक मंच पर आए दोनों दलों की राहें जुदा हो गई । सत्ता में चार साल भागीदारी के बाद दोनों दल अब आमने-सामने हैं। टीडीपी केंद्र की एनडीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव तक लाने पर आमादा है। यह जानते हुए भी कि उनके अविश्वास प्रस्ताव से केंद्र सरकार गिरने वाली नहीं हैं। यह पहला अवसर नहीं है जब गठबंधन की गांठे ढीली पड़ी हैं। देश के दो बड़े राजनीतिक गठबंधन एनडीए और यूपीए में मिलने-बिछुड़ने का खेल चलता रहता है। टीडीपी पहले भी भाजपा सरकार को केन्द्र में समर्थन दे अलग हो चुकी है। दो दशक पहले बने एनडीए को एक दौर में अन्नाद्रमुक और द्रमुक पार्टी भी समर्थन दे चुकी है। ममता बनर्जी और बीजू जनता दल भी इसके सहयोगी रह चुके हैं। सत्ता की भागीदारी के लिए एक साथ आने और महत्त्व नहीं मिलने पर अलग होने का सिलसिला लगातार चल रहा है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में भी एक समय बसपा, टीआरएस, टीएमसी और एनसीपी मजबूत सहयोगी दल रह चुके हैं। बाद में इनके रास्ते भी अलग होते चले गए। अधिकतर दल स्थानीय मजबूरियों के चलते गठजोड़ का रास्ता चुनते हैं। विचारधारा और सिद्धान्तों पर चलने वाले गठबंधन अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। भाजपा का अकाली दल और शिवसेना के साथ ढाई दशक से गठबंधन है लेकिन बीते कुछ सालों से शिव सेना से रिश्तों में खटास आने लगी हैं। सरकार में शामिल होने के बावजूद शिव सेना विपक्षी भूमिका में नजर आता है। टीडीपी-भाजपा की दोस्ती टूटना गढ़ों के बिखरने की शुरुआत है। चुनाव आने तक मिलने- बिछुड़ने का सिलसिला रहने वाला है।


दैनिक जागरण

जनहित का दिखावा

मोदी सरकार से बाहर होने का फैसला करने के बाद तेलुगु देसम पार्टी ने जिस तरह राजग छोड़ने की घोषणा करने के साथ ही सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया उससे यही पता चल रहा है कि वह इस मामले में अपने प्रतिद्वंद्वी दल वाइएसआर कांग्रेस से पीछे दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती। उसकी ओर से यह जल्दबाजी इसीलिए दिखाई गई ताकि आंध्र प्रदेश की जनता को यह संदेश दिया जा सके कि राज्य के हितों की कथित रक्षा के मामले में तेलुगु देसम पार्टी उतनी ही तत्पर है जितनी कि वाइएसआर कांग्रेस। हैरत नहीं कि अब इन दोनों दलों में इसे लेकर होड़ हो कि सबसे पहले उनके अविश्वास प्रस्ताव संबंधी नोटिस पर गौर किया जाए। जो भी हो, मौजूदा राजनीतिक माहौल में अन्य विपक्षी दलों की ओर से तेलुगु देसम पार्टी अथवा वाइएसआर कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन मिलने के भरे-पूरे आसार हैं, क्योंकि गोरखपुर, फूलपूर और अररिया लोकसभा उपचुनावों के नतीजे के बाद से विपक्षी दल यह माहौल बनाने में लगे हुए हैं कि ऐसे ही परिणाम आगामी आम चुनाव में आने जा रहे हैं। विपक्ष न केवल ऐसा माहौल बनाने के लिए स्वतंत्र है, बल्कि सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए भी, लेकिन यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के फेर में संसद को अखाड़ा बना दे। देखना यह है कि जो संसद बीते करीब दस दिनों से नहीं चली वह अविश्वास प्रस्ताव के लिए चल पाती है या नहीं? जो भी हो, यह आम जनता की उपेक्षा-अनदेखी के अलावा और कुछ नहीं कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही यह कहें कि वे सभी ज्वलंत मसलों पर चर्चा करने को तैयार हैं, लेकिन संसद चलने का नाम न ले। कम से कम इस पर तो चर्चा हो ही सकती है कि किसी मसले पर बहस किस नियम के तहत हो?1वित्त विधेयक जिस तरह बिना किसी चर्चा के पारित हुआ उससे यही साबित हुआ कि राष्ट्रीय मसलों पर बहस करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं रह गई है। यह सही है कि इसके पहले भी एक-दो बार वित्त विधेयक बिना किसी चर्चा के पारित हुआ है, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि खराब परंपराएं नजीर बनें। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा ही हो रहा है। एक तरह से असंसदीय तौर-तरीकों को अनुकरणीय उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है। विपक्षी दल वित्त विधेयक के बिना चर्चा के पारित होने के लिए सत्तापक्ष पर सारा दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री कर सकते हैं, लेकिन सच यही है कि गतिरोध में उनका भी हाथ है। विडंबना यह है कि शोर-शराबे के मामले में लोकसभा जैसी स्थिति राज्यसभा की भी है। राज्यसभा में राजनीतिक दलों का व्यवहार यदि कुछ प्रकट कर रहा है तो यही कि किसी को इसकी परवाह नहीं कि उच्च सदन को कहीं अधिक धीर-गंभीर आचरण का परिचय देना चाहिए। संसद में तथाकथित जनहित या लोकतंत्र हित के नाम पर जिस तरह हल्ला-हंगामा हो रहा है उसे देखते हुए इसके आसार और कम हो गए हैं कि आने वाले संसद सत्र सही तरह चलेंगे और उनमें कोई विधायी कामकाज हो सकेंगे।