आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 16 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

प्रसन्नता का प्रसार

यह वाकई चिंता की बात है कि प्रसन्न देशों की सूची में भारत का मुकाम खिसककर काफी नीचे चला गया है। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2018 में भारत को 156 देशों की सूची में 133 वां स्थान मिला है, जबकि पिछले साल वह 122 वें स्थान पर था। सूची में पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान हम से ऊपर हैं। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘सस्टेनेबल डिवेलपमेंट सॉल्यूशंस नेटवर्क’ तैयार करती है। प्रसन्नता को मापने के लिए कई ठोस कसौटियाँ रखी गई हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), सामाजिक सहयोग, उदारता, भ्रष्टाचार का स्तर, सामाजिक स्वतंत्रता और स्वास्थ्य। रिपोर्ट का मकसद विभिन्न देशों के शासकों को एक तरह से आइना दिखाना है कि उनकी नीतियां आमजन की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा रही हैं या नहीं। इस साल रिपोर्ट में फिनलैंड अव्वल रहा जबकि पिछले साल नार्वे ने बाजी मारी थी। एक नजर में यह विरोधाभास लगता है कि एक तरफ दुनिया के तमाम देश और प्रमुख प्रमुख वित्तीय संगठन भारतीय अर्थव्यवस्था की लगातार तरक्की को स्वीकार कर रहे हैं, दूसरी ओर प्रसन्नता के मामले में हम छोटे, अविकसित देशों से भी पीछे हैं। पिछले दो-ढाई दशकों में भारत में विकास प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है पर उसका फायदा घूम-फिरकर अमीर, ताकतवर तक ही पहुंच रहा है। सामाजिक विकास या कमजोर तबकों को राहत पहुंचाने के लिए इसमें कुछ खास जगह नहीं बन पा रही। जैसे, सबको शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध कराने जैसे बुनियादी कार्य दिनोंदिन पिछड़ते ही जा रहे हैं। पिछड़े-वंचित तबके को मुख्यधारा में लाकर विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की जो थोड़ी-बहुत कोशिशें हुईं भी, उनकी भूमिका दिखावे तक ही सिमटी रही। नतीजा यह है कि देश की बहुसंख्यक आबादी अपनी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रही है। ऐसे में इन करोड़ों लोगों से प्रसन्न रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जाहिर है, यह रिपोर्ट विकास दर जैसे आंकड़ों की व्यर्थता साबित करती है और समृद्धि के नीचे तक बंटवारे की चिंता को सामने लाती है। इस सिलसिले में अकेली अच्छी बात यह है कि हैपिनेस इंडेक्स के जरिये सामाजिक प्रसन्नता ने एक विमर्श का रूप लिया है। दिल्ली सरकार एक हैपिनेस कोर्स शुरू करने जा रही है जिसमें बच्चों को फन एक्टिविटी के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। इसकी शुरुआत नए सेशन, 1 अप्रैल 2018-19 से होगी। इसमें परीक्षा नहीं होगी, स्कूल की गतिविधियों के आधार पर बीच-बीच में बच्चों की खुशी का स्तर मापा जाएगा। अगर यह कवायद बच्चों को भौतिक संसाधनों की अंधी दौड़ से बाहर निकालकर उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बना सके तो इसे सार्थक कहा जाएगा। क्यों न ऐसे कुछ पाठ्यक्रम नीति-निर्माताओं के लिए भी शुरू किए जाएं?


 जनसत्त्ता

सीमित स्वायत्ता

पंजाब नेशनल बैंक में घोटाला सामने आने के बाद सबसे ज्यादा आलोचनाओं का शिकार हुए रिजर्व बैंक ने पहली बार चुप्पी तोड़ते हुए जो कहा है, वह काफी गंभीर और चौंकाने वाला है। आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि घोटालों को रोकने के लिए उनके पास जो अधिकार होने चाहिए, वे नहीं हैं। अगर सरकार ने रिजर्व बैंक के अधिकारों में कटौती न की होती तो शायद ऐसे घोटालों को अंजाम देने वालों के हौसले बुलंद नहीं हो पाते। केंद्रीय बैंक के गवर्नर का यह कहना निश्चित रूप से एक गंभीर मामला है। इससे पता चलता है कि बैंकिंग सुधार के नाम पर सरकार किस तरह केंद्रीय बैंक को पंगु बनाते हुए वाणिज्यिक बैंकों को अपनी मुट्ठी में कर रही है। इससे सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच गहरे और गंभीर मतभेद उजागर हुए हैं। जाहिर है, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार और बैंकों पर नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक जो ठोस कदम उठाना चाहता है, वे शायद सरकार को अनुकूल प्रतीत नहीं होते।

 उर्जित पटेल की बात से जो सबसे बड़ा मुद्दा उभर कर आया है, वह सीधे-सीधे रिजर्व बैंक की स्वायत्तता से जुड़ा है। सरकार ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर एक तरह से रिजर्व बैंक को निहत्था बना दिया है। बैंकिंग क्षेत्र के बारे में बड़े फैसले करने के अधिकार सरकार ने अपने पास ले लिए। ऐसे में अब केंद्रीय बैंक की हैसियत शायद इतनी भी नहीं रह गई है कि वह बड़े-बड़े घोटालों के बाद किसी की जवाबदेही तय कर सके, किसी सरकारी बैंक के निदेशक मंडल को हटा सके या किसी बैंक का लाइसेंस रद्द कर सके। अरबों-खरबों के घोटाले सामने आने के बाद अगर केंद्रीय बैंक किसी की जवाबदेही भी तय नहीं कर सके तो फिर आखिर उसकी भूमिका क्या रह गई है, यह गंभीर सवाल है। रिजर्व बैंक अब क्या सिर्फ निजी क्षेत्र के बैंकों की निगरानी करने को रह गया है? आठ नवंबर, 2016 को नोटबंदी के बाद केंद्रीय बैंक को जिस तरह से दरकिनार करते हुए सरकार ने जो फैसले किए और ज्यादातर बड़े फैसलों के बारे में रिजर्व बैंक को जानकारी तक नहीं होने की बातें सामने आर्इं, उनसे तभी साफ हो गया था कि आने वाले वक्त में रिजर्व बैंक की भूमिका क्या रह जाएगी।

रिजर्व बैंक गवर्नर ने यह स्वीकार किया कि बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन कर केंद्रीय बैंक के अधिकार इतने घटा दिए गए हैं कि सरकारी बैंकों के कारोबारी प्रशासन में उसकी भूमिका नहीं के बराबर रह गई है। यह स्वीकारोक्ति इस बात को रेखांकित करती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण को लेकर सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच खाई कितनी चौड़ी हो गई है। अब बैंकों के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक और निदेशक मंडलों में नियुक्तियों का रिजर्व बैंक का अधिकार खत्म हो गया है। इन नियुक्तियों की कमान सरकार के हाथ में है। यह छिपी बात नहीं है कि बैंकों के शीर्ष पदों और निदेशक मंडलों में सरकार खासा दखल रखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि बैंक का आला प्रबंधन रिजर्व बैंक के प्रति जवाबदेह होगा या फिर सरकार में बैठे लोगों के प्रति। बैंंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए बनी नरसिम्हन कमेटी ने भी आरबीआइ की निगरानी में बैंकों के निदेशक मंडलों को राजनीतिक दखल से बचाने का सुझाव दिया था। अगस्त 2015 में भी पीजे नायक समिति ने सरकारी बैंकों के बोर्ड के कामकाज में सुधार की जरूरत बताई थी। पर सुधार को लेकर सरकार की ओर से शायद ही कोई पहल हुई हो। अगर ऐसे सुझाव अमल में लाए जाते तो पीएनबी जैसे घोटाले नहीं होते!


हिन्दुस्तान

कृषि का संकट

किसानों की नाराजगी का कारवां गुरुवार को लखनऊ की सड़कों पर था। अभी चंद रोज पहले ऐसा ही एक दृश्य हमें देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की सड़कों पर भी दिखा था। जैसे मुंबई में प्रदर्शन करने वाले किसानों की मांगें मान ली गईं, वैसी ही उम्मीद लखनऊ में आंदोलन कर रहे किसानों को भी होगी। हालांकि कृषि विशेषज्ञ, आर्थिक योजनाकार और यहां तक कि किसान नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि कर्ज-माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसी मांगों की पूर्ति किसानों को तात्कालिक राहत भले दे दे, लेकिन वह उन मूल समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगी, जिनसे हमारे देश की कृषि बुरी तरह त्रस्त है। मुमकिन है कि लगभग हर प्रदेश में आंदोलन कर रहे किसान भी यह अच्छी तरह समझते हों, लेकिन उनकी कुल जमा पीड़ा इतनी घनीभूत है कि तात्कालिक राहत के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा के अलावा हो सकता है कि उन्हें और कोई विकल्प नहीं दिख रहा हो। किसान जिन मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हैं, उनका हश्र हम पंजाब में देख सकते हैं, जहां अकाली सरकार के दस साल के शासन के दौरान किसानों के सभी कर्जे माफ कर दिए गए थे, उन्हें मुफ्त बिजली दी जा रही थी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने की मशीनरी नीचे तक काम कर रही थी। लेकिन किसानों की समस्याएं वहां भी खत्म नहीं हुईं। वहां भी किसानों में असंतोष है। वहां भी किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केंद्र सरकार ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा किया है, मध्य प्रदेश ने किसानों के लिए भावांतर जैसी योजना लागू की है। लेकिन किसानों को इनमें अच्छे भविष्य का आश्वासन नहीं दिख रहा।

देश भर के किसान इतने असंतुष्ट क्यों हैं? इस असंतोष के कारणों को गहराई तक समझना आसान नहीं है, लेकिन कुछ चीजें हैं, जो स्पष्ट दिखती हैं। अगर हम पिछले एक दशक की कृषि विकास दर पर नजर डालें, तो यह आमतौर पर दो फीसदी के आस-पास ही रही है, कभी दो फीसदी से ज्यादा नहीं हुई और एकाध बार तो शून्य से भी नीचे जा चुकी है। जिस समय देश की कुलजमा विकास दर छह से सात फीसदी की गति से लगातार बढ़ रही है, तब भारतीय कृषि कछुआ चाल से आगे बढ़ने के लिए अभिशप्त है। इन किसानों को चार से पांच फीसदी ब्याज दर पर रियायती कर्ज देकर सरकारें भले ही अपनी पीठ थपथपाती रही हों, लेकिन इस स्थिति में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि किसान कर्ज की अदायगी भी कर ले और खुशहाल भी हो जाए। यहां मामला सिर्फ कृषि उत्पादकता बढ़ाने का नहीं है, क्योंकि किसानों का अनुभव यही कहता है कि जिस साल उनके खेतों में उत्पादन बढ़ता है, बाजार भाव मुंह के बल गिरता है और वे ज्यादा घाटे में रहते हैं।

कृषि का यह संकट भारत का ही नहीं है, पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में इससे दो-चार हो रही है। पश्चिम के देश विश्व व्यापार संगठन से जूझते हुए, कृषि को सब्सिडी के बल पर चला रहे हैं, तो चीन जैसे देश कुछ अलग तरह के समाधान की तरफ बढ़ रहे हैं। तेज रफ्तार से भाग रहे उद्योगों के बीच कृषि को किस तरह आगे ले जाया जाए, यह सभी की समस्या है। हमारी समस्या यह है कि देश की तकरीबन आधी आबादी इस संकटग्रस्त कारोबार से जुड़ी है। लेकिन हम दीर्घकालिक समाधान खोजने की बजाय अभी तात्कालिक राहत की राह पर ही हैं।


 अमर उजाला

फौरी राहत से आगे

पासपोर्ट के लिए आधार की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने बैंक खाते, मोबाइल और अन्य सेवाओं को आधार से जोड़ने की समय सीमा 31 मार्च से आगे बढ़ाकर निस्संदेह एक बड़ी राहत प्रदान की है। उसने यह भी कहा है कि इस बीच केंद्र सरकार आधार को अनिवार्य बनाने के लिए दबाव नहीं डाल सकती। वस्तुतः आधार की शुरुआत कल्याणकारी योजनाओं को लक्षित समूहों तक पहुंचाने के लिए की गई थी। कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार की समय सीमा न बढ़ाकर अदालत ने आधार के उसी उद्देश्य पर मोहर लगाई है। अलबत्ता इसे नागरिकता की पहचान से जोड़ने और तमाम सेवाओं से जोड़ने की सरकारी बाध्यता ने कई व्यावहारिक मुश्किलें खड़ी कर दी हैं और सर्वोच्च न्यायालय इसी के औचित्य या अनौचित्य पर फैसला देगा। उसी को यह तय करना है कि आधार कार्ड सांविधानिक दस्तावेज है या नहीं। आधार से संबंधित दो तथ्य जनमानस के बीच हैं। एक यह कि सभी सेवाओं से आधार को जोड़ना व्यक्ति की निजता के अधिकार का हनन है। दूसरा यह कि आधार से जुड़ी विभिन्न विसंगतियां साबित करती हैं। कि इतनी विशाल जनसंख्या के व्यक्तिगत आंकड़ों को सुरक्षित रखने का कोई नेटवर्क भी हमारे पास नहीं है। सिर्फ यही नहीं कि बड़ी संख्या में आधार और बैंक खातों से जुड़ी जानकारियां लीक होने की बात सामने आई है, बल्कि तकनीकी कमियों के कारण आधार से न जुड़ने के कारण राशन और पेंशन न मिल पाने के अनेक ब्योरे भी सामने आए हैं। फिर आधार कार्ड बनवाने, उसकी गलतियां दुरुस्त करवाने और आधार कार्ड हासिल करने से जुड़ी । मुश्किलें भी कम नहीं हैं। लिहाजा कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार को अनिवार्य बनाने की जरूरत से सहमत होने के बावजूद इससे जुड़ी व्यावहारिक परेशानियों की अनदेखी नहीं की जा सकती और जिन्हें दूर करने की जरूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने चूंकि हाल ही के एक फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया है, इसी को देखते यह उम्मीद की जा रही है कि वह आधार के मामले में निजता के अधिकार की रक्षा कर सकता है। बेशक आधार ऐक्ट की सांविधानिक वैधता के खिलाफ लंबित याचिकाओं के निपटारे में समय लगेगा, पर यह भी सच है कि इस महत्वपूर्ण फैसले में ज्यादा विलंब से भ्रांतियां ही पैदा होंगी।


दैनिक भास्कर

खुशी कम कर रही अार्थिक विषमता पर ध्यान देना होगा

संयुक्त राष्ट्र स्थायी विकास समाधान नेटवर्क की इस साल की रिपोर्ट ने पाकिस्तान को भारत से ज्यादा खुश देश बताकर सबको हैरान कर दिया है। आतंकवाद, कट्‌टरता और भ्रष्टाचार से प्रभावित पाकिस्तान न सिर्फ भारत से ज्यादा खुश है बल्कि 156 सीढ़ियों के इस क्रम में वह हमसे 58 सीढ़ी ऊपर है। सबसे ज्यादा फिल्में और मनोरंजन चैनल वाला भारत खुशी की पायदान पर पिछले साल के मुकाबले 11 पॉइंट नीचे गिरा है तो पाकिस्तान पांच पॉइंट ऊपर चढ़ा है। भारत 133 वें नंबर, पाकिस्तान 75वें और अफगानिस्तान 145वें पर है। एशिया में अफगानिस्तान को छोड़कर चीन, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल सब हमसे आगे हैं। संयुक्त राष्ट्र जैसी प्रतिष्ठित संस्था का आकलन होने के नाते इसे हल्के में खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन, भारतीय लोकतंत्र में मीडिया, न्यायपालिका और व्यक्तिगत आज़ादी के साथ उसकी विकास दर को देखते हुए इस पर सहज विश्वास भी नहीं किया जा सकता। खुशी के इस सूचकांक पर हमसे बेहतर देशों की राजनीतिक स्वतंत्रता की स्थिति बहुत खराब है। हो सकता है कि छोटे देश होने के नाते वहां के लोगों में अपनी सरकार के प्रति ज्यादा विश्वास हो और भारत जैसे विशाल देश में असंतोष का स्तर ज्यादा हो। बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश होने के नाते भारत में सामाजिक अविश्वास और तनाव का स्तर भी ज्यादा होने की संभावना है, क्योंकि ऐसे लोग आपस में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ज्यादा प्रतिस्पर्धा में उलझे होते हैं और मिलने वाले लाभ में पक्षपात की आशंका बनी रहती है। प्रधानमंत्री ने भी अपने कार्यकाल के आरंभ में कहा था कि उदारीकरण से संपन्न हुआ मध्यवर्ग अनिश्चितता में जी रहा है, क्योंकि वह कभी भी फिसलकर निचले वर्ग में आ सकता है। पहले मंदी, फिर नोटबंदी और बाद में जीएसटी ने समाज को आर्थिक रूप से दुखी तो किया है। यूपीए-2 के कार्यकाल में अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज ने ‘द अनसरटेन ग्लोरी’ लिखकर बताया था कि भारत मानव विकास सूचकांक पर पड़ोसी देशों से कितना पीछे है। थामस पिकेटी ने भी भारत की असमानता और गरीबी की ओर ध्यान खींचा था। हाल में आई ऑक्सफैम की रिपोर्ट भी आर्थिक असमानता की ओर संकेत करती है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार, बाजार और नागरिक संस्थाएं इस ओर ध्यान दें।


राजस्थान पत्रिका

शालीनता का तकाजा

विश्वास नहीं होता कि लोकसभा की एक सीट के उपचुनाव की हार-जीत इतनी बड़ी तल्खी का कारण बन सकती है। भाजपा बिहार की अररिया सीट पर लोकसभा उपचुनाव हार गई तो बड़बोले केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की जुबान एक बार फिर काबू में नहीं रही। अररिया में राष्ट्रीय जनता दल की जीत को खतरनाक बताते हुए सिंह ने भविष्यवाणी कर डाली कि अब वह आतंकवादियों का गढ़ बन जाएगा। सिंह के बयान पर अनेक विरोधी भला कहां चुप रहने वाले थे। बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने सिंह के बयान पर पलटवार करते हुए भाजपा को खरीखोटी सुना डाली। राबड़ी दो कदम आगे निकलते हुए कह गईं कि देश के सारे आतंकवादी भाजपा के कार्यालय में बैठते हैं। केन्द्र सरकार में बैठे मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करने लगे तो सामान्य कार्यकताओं से शिष्ट भाषा की उम्मीद कैसे की जाए? इस तरह की बयानबाजियों के बीच यह देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि राजनेता मतदाताओं के फैसले का सम्मान करना भी भूलते जा रहे हैं। अररिया के मतदाताओं ने अगर वहां भाजपा को हरा दिया तो वह आतंकवादियों का गढ़ कैसे बन जाएगा? एक केन्द्रीय मंत्री के इस तरह के बयान पर भाजपा नेतृत्व का खामोश बैठना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं लगता।
प्रधानमंत्री एक तरफ भाजपा नेताओं को संभलकर बोलने की सलाह देते हैं। तो दूसरी तरफ देश तोड़ने वाले ऐसे बयान देने वाले मंत्रियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती। लोकतंत्र में हार-जीत सिक्के के दो पहलू हैं। राजनीतिक दलों को मतदाताओं का फैसला सिर माथे लेना चाहिए। हार के कारणों की समीक्षा करके अगली बार जीत के प्रयास करने चाहिए। जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं के भड़काऊ बयानों का खामियाजा देश पहले भी भुगत चुका है। बयानों देने वालों का कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन आम जनता को इसका दर्द झेलना पड़ता है। दलों का शीर्ष नेतृत्व यदि ऐसे बयानों को गंभीरता से लेकर कार्रवाई करने लगे तो बयानों की बाढ़ रुक सकती हैं। सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ देने की परम्परा ने राजनीति का बंटाधार कर दिया है। राजनीति में शालीनता का पाठ सीखना/सिखाना जरूरी है। राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ-साथ देश के लिए यही उत्तम होगा।


दैनिक जागरण

कौन रोकेगा घोटाले

पंजाब नेशनल बैंक में हजारों करोड़ रुपये के घोटाले के बाद जिस तरह जानबूझकर कर्ज न लौटाने वालों के साथ-साथ बैंकों से जुड़े धोखाधड़ी के मामले सामने आ रहे हैं उससे यही प्रकट होता है कि बैंकों का प्रबंधन कुप्रबंधन का पर्याय बन चुका है। यह स्थिति केवल भ्रष्ट बैंक अफसरों और घोटालेबाजों के लिए ही हितकारी हो सकती है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सरकार जानबूझकर कर्ज न लौटाने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने के साथ अन्य अनेक उपाय कर रही है, क्योंकि धोखाधड़ी रोकने और घोटालेबाज तत्वों को घेरने-पकड़ने से ज्यादा जरूरी ऐसी व्यवस्था का निर्माण है जिससे घोटाले हो ही न सकें। बीते दिन रिजर्व बैंक के गर्वनर ऊर्जित पटेल ने जिस तरह यह कहा कि सरकारी बैंकों पर अंकुश लगाने के मामले में उनके हाथ बंधे हुए हैं उससे तो यही रेखांकित हुआ कि वित्त मंत्रलय अनावश्यक ही रिजर्व बैंक को जवाबदेह ठहरा रहा है। ऊर्जित पटेल के अनुसार उनके पास पर्याप्त अधिकार नहीं हैं। वह न तो सरकारी बैंकों के चेयरमैन और निदेशक को हटा सकते हैं और न ही उनके लाइसेंस रद कर सकते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि बैंकिंग नियमन संबंधी अधिनियम ने रिजर्व बैंक के अधिकार सीमित कर दिए हैं। आखिर ऐसे में वित्त मंत्रलय किस आधार पर पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले अथवा बैंकों के बढ़ते एनपीए के लिए उसे जवाबदेह ठहरा रहा है? नि:संदेह एक सवाल यह भी है कि सरकार जिन लोगों को बैंकों का चेयरमैन या निदेशक बनाती है उन्हें जवाबदेही के दायरे में क्यों नहीं लाती? यह किसी से छिपा नहीं कि आम तौर पर इन पदों पर राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं। 1कई बार तो ऐसे लोग सरकारी बैंकों के चेयरमैन या निदेशक बन जाते हैं जिन्हें बैंकिंग तंत्र की सही समझ भी नहीं होती। इससे भी खराब बात यह है कि वे बैंकों के हितों की परवाह करने के बजाय राजनीतिक हित पूरे करने में लगे रहते हैं। वे जवाबदेही से भी बचे रहते हैं। आश्चर्य नहीं कि इसी कारण विलफुल डिफाल्टर भी बढ़ रहे हैं और बैंकों के फंसे कर्ज की राशि भी। क्या यह अजीब बात नहीं कि सरकार लोगों पर भरोसा करने की बात तो करती है, लेकिन रिजर्व बैंक सरीखी नियामक संस्था पर भरोसा नहीं कर पा रही है? आखिर वह रिजर्व बैंक को आवश्यक अधिकारों से लैस क्यों नहीं करना चाहती? नि:संदेह सरकार को नीतियां बनाने-बदलने का अधिकार है, लेकिन बैंकों के नियमन की पूरी जिम्मेदारी तो रिजर्व बैंक के पास ही होनी चाहिए। दोहरी व्यवस्था तो साङो की खेती हुई और सब जानते हैं कि इस तरह की खेती का क्या हश्र होता है? आखिर रिजर्व बैंक को पर्याप्त अधिकार दिए बिना उसे उसकी जिम्मेदारी याद दिलाने का क्या मतलब? इस सवाल का जवाब देने के साथ सरकार को यह भी बताना चाहिए कि देश में इतने अधिक सरकारी बैंक क्यों होने चाहिए? अगर वह राजनीतिक कारणों से उनका निजीकरण नहीं कर सकती तो फिर उनकी संख्या तो सीमित कर ही सकती है। बेहतर हो कि वह यह समङो कि एक आदर्श और भरोसेमंद व्यवस्था वही होती है जिसमें घपले-घोटाले होने ही न दिए जाएं।


प्रभात खबर

इतनी हड़बड़ी क्यों

बुधवार को लोकसभा में महज आधे घंटे की कार्यवाही में वित्त विधेयक और विनियोग विधेयक को मंजूर कर लिया गया. इस प्रक्रिया में भारत सरकार के 99 मंत्रालयों और विभागों के आवंटन और 218 संशोधन शामिल हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी वित्त विधेयक में 21 संशोधनों का प्रस्ताव रखा था. देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में चर्चा, बहस और वोटिंग के जरिये फैसले लेने की परिपाटी है. किन्हीं विशेष परिस्थितियों में सदस्यों की सहमति से इस प्रक्रिया के बिना भी विधेयक या प्रस्ताव पारित होते हैं. हाल में 2003-04 और 2013-14 के बजट को ‘गिलोटिन’ प्रणाली से पारित किया था. इस प्रक्रिया के तहत सभी अनुदान मांगों को एक साथ बिना बहस पारित किया जाता है. यह हड़बड़ी संसदीय परंपरा के लिहाज से चिंताजनक है, क्योंकि बजट सत्र पूरा होने में तीन हफ्ते बाकी हैं. इस प्रकरण पर सरकार और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. सरकार का कहना है कि विपक्ष संसद की कार्यवाही को हंगामे से बाधित कर रहा है तथा विपक्ष का आरोप है कि सरकार और लोकसभाध्यक्ष लोकतंत्र को सरकार विपक्ष को गला घोंट रहे हैं. बीते कुछ दिनों से अनेक मुद्दों बजट पर चर्चा के लिए पर चर्चा की मांग करते हुए विभिन्न दल हंगामा राजी करने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों सदनों में कामकाज लगभग ठप है और विधेयक पारित नहीं हो पा रहे हैं. इस स्थिति में सरकार का तर्क है कि उसके पास वित्तीय प्रस्तावों को एकबारगी मंजूर कराने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. परंतु, यह भी सरकार की ही जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष के साथ संवाद कायम कर कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने की कोशिश करे. शोर-शराबे और हंगामे को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है तथा संसद का कामकाज शांति-व्यवस्था से चलाने में विपक्षी दलों को भी सकारात्मक योगदान देना चाहिए. चूंकि वित्त और विनियोग विधेयकों पर चर्चा के दौरान सभी मंत्रालयों और विभागों पर बहस मुमकिन नहीं है, इसलिए अमूमन पांच-छह मुख्य विभागों पर सांसद अपनी राय रखते हैं और सरकार अपना स्पष्टीकरण देती है. यही परंपरा कटौती प्रस्तावों के साथ भी है. मौजूदा सत्र में रेल, कृषि और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालयों को चर्चा के लिए चुना गया था. राजनीतिक दलों को चंदा, संचित निधि से सरकार द्वारा धन निकालने, पूंजी लाभ कर जैसे बेहद गंभीर प्रस्ताव भी थे. बजट मंजूर करना संसद, खासकर लोकसभा, के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है. बुधवार को जो कुछ लोकसभा में हुआ है, उसकी जवाबदेही सदन में मौजूद हर सदस्य पर है. सरकार विपक्ष को बजट पर चर्चा के लिए राजी करने की कोशिश कर सकती थी. बजट जैसे मुद्दे आने पर विपक्ष अपनी मांगों को कुछ देर रोक सकता था. जो दल या सदस्य इन दो खेमों में नहीं है, वे मध्यस्थता कर सकते थे. उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद, सरकार और राजनीतिक पार्टियां इस प्रकरण पर आत्ममंथन करेंगी और ‘गिलोटिन’ के इस्तेमाल से परहेज करेंगी.