आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 03 मई, 2018

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नवभारत टाइम्स

प्रदूषण में अव्वल क्यों

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की है, जिनमें 14 शहर भारत के हैं। यानी प्रदूषण फैलाने में हम दुनिया का नेतृत्व कर रहे हैं। प्रदूषित शहरों की यह लिस्ट 2016 की है, जिसमें कानपुर पहले और दिल्ली छठे नंबर पर है। राजधानी के प्रदूषण को लेकर अक्सर चिंता जाहिर की जाती है लेकिन अब पूरे देश पर बात करनी होगी। सिर्फ कुछ महानगरों को प्रदूषण मुक्त कर लेने से कुछ नहीं होगा, हालांकि यह भी महज एक सपना ही है। पिछले कुछ सालों से सरकार कहने लगी है कि पर्यावरण एक बड़ा मुद्दा है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। मगर नीति-निर्माण में पर्यावरण को प्राथमिकता आज भी नहीं दी जा सकी है। पर्यावरण से जुड़े प्रतिष्ठित संस्थानों के सुझाव सिर्फ फाइलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। विकास के नाम पर बड़े उद्योगों को कहीं कुछ भी कर डालने की छूट दी गई हैं। परोक्ष रूप से उन्हें यह आश्वासन भी दिया जाता है कि पर्यावरण का मुद्दा उनके रास्ते में रुकावट नहीं बनेगा। आलम यह है कि इस मामले में अदालती आदेशों तक पर सियासत होती है। बीते साल दिवाली पर कोर्ट ने दिल्ली में पटाखे न जलाने का आदेश दिया, लेकिन एक राजनीतिक दल ने इसे हिंदू परंपरा में हस्तक्षेप के रूप में चित्रित किया। उसके इस रुख का असर यह पड़ा कि आम लोगों ने आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए खूब पटाखे जलाए। भारतीय शहरों में प्रदूषण मुख्यत: औद्योगिक इकाइयों और वाहनों से होता है। औद्योगिक इकाइयां हर जगह नहीं हैं। दिल्ली और कुछेक महानगरों से उन्हें दूसरी जगह स्थानांतरित किया गया है। लेकिन इससे समस्या सुलझी नहीं, क्योंकि नई जगह पर भी प्रदूषण नियंत्रण उनके अजेंडे पर नहीं था। ज्यादातर इकाइयों में वायु प्रदूषणरोधी उपाय ही नहीं किए गए हैं। द्रव और ठोस कचरे के निस्तारण की बात उनकी सोच से भी परे है, लिहाजा कोई इसे जमीन के नीचे दबा देता है, कोई सीधे नदियों के हवाले कर देता है। रहा सवाल वाहनों का तो कुछ शहरों में पेट्रोल-डीजल के बजाय गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया है। लेकिन इसके अपेक्षित नतीजे अभी आने बाकी हैं। महानगरों में सीएनजी पंपों पर लंबी-लंबी लाइनें लगी रहती हैं और अदालत के आदेशों के बावजूद पुरानी डीजल गाड़ियां सड़कों पर धुआं छोड़ती रहती हैं। पिछले साल सरकार ने घोषणा की थी कि 2030 से देश में बनने वाली सभी कारें केवल बैटरी से चलेंगी, लेकिन फिर उसने इस पर चुप्पी साध ली। रेलवे के विद्युतीकरण को लेकर भी सरकार के भीतर मतभेद हैं। पर्यावरण को लेकर यह टालू रवैया अब नहीं चलेगा। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए परिवहन, ऊर्जा और नगर नियोजन नीतियों में एकरूपता और अमल में सख्ती जरूरी है। ध्यान रहे, सारी दुनिया की नजर अब हम पर है।


जनसत्ता

बेलगाम अपराधी

हिमाचल प्रदेश के कसौली और धरमपुर इलाके में अवैध निर्माण गिराने के दौरान एक महिला अधिकारी की हत्या से यही लगता है कि गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त लोग शायद बेखौफ अपना काम कर रहे थे। हैरानी की बात है कि अवैध रूप से बने एक गेस्ट हाउस को तोड़ने वाली टीम को साथ लेकर पहुंची सहायक नगर नियोजन अधिकारी को गोली तब मारी गई, जब उनके आसपास पर्याप्त संख्या में पुलिसकर्मी मौजूद थे। यही नहीं, बेलगाम तरीके से गोलीबारी करने के बाद गेस्ट हाउस का आरोपी मालिक मौके से फरार भी हो गया। जाहिर है, यह जोखिम की स्थितियों में ड्यूटी के दौरान सुरक्षा-व्यवस्था में बरती गई ऐसी लापरवाही थी, जिसके चलते एक अफसर की जान चली गई और एक मजदूर घायल हो गया। स्वाभाविक ही सुप्रीम कोर्ट ने इस घटना का तुरंत स्वत: संज्ञान लिया और कहा कि यह स्थिति इसलिए ज्यादा गंभीर है कि सरकारी अधिकारी न्यायालय के निर्देश का पालन कराने वहां गए थे। अदालत ने पूछा कि अवैध निर्माण हटाने के लिए चले अभियान के दौरान सरकारी अधिकारियों के साथ गया पुलिस दल उस वक्त क्या कर रहा था, जब गेस्ट हाउस के मालिक ने महिला अधिकारी को गोली मारी!

गौरतलब है कि एक गैर-सरकारी संगठन की याचिका पर एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने बिना मंजूरी के गैरकानूनी रूप से बनाई गई इमारतों को ढहाने और कई प्रतिष्ठानों को बंद करने का आदेश दिया था। एनजीटी ने पारिस्थितिकी को भारी नुकसान पहुंचाने, पर्यावरण को प्रदूषित करने और अवैध निर्माणों के लिए कई होटलों पर भारी जुर्माना भी लगाया था। इसके बाद कसौली में कई होटलों और गेस्ट हाउस मालिकों ने इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील की थी। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बीते सत्रह अप्रैल को साफ कहा था कि पैसा बनाने के लिए लोगों की जान खतरे में नहीं डाली जा सकती। यह किसी से छिपा नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में ज्यादा पर्यटकों की आवाजाही वाले तमाम ऐसे इलाकों में बहुत सारे व्यवसायियों ने पैसा बनाने के लिए होटलों या रिहाइशी इमारतों में तय नियम-कायदों को धता कर अतिरिक्त निर्माण कर लिए हैं। कई होटलों और रिसॉर्ट के मालिकों को नियमों के तहत सिर्फ दो मंजिला इमारत बनाने की इजाजत मिली थी। लेकिन उन्होंने इमारत को छह मंजिला तक बनवा लिया।

अंदाजा लगाया जा सकता है कि इससे क्या खतरे हो सकते हैं। न केवल कसौली या धरमपुर में, बल्कि पर्यटन के लिहाज से हिमाचल प्रदेश सहित दूसरे पहाड़ी इलाकों में भी इस तरह के अवैध निर्माणों ने उन शहरों को खतरे में डाल दिया है। अक्सर होने वाले भूस्खलन और उसके जोखिमों के बावजूद आमतौर पर इस पहलू की अनदेखी की जाती है, लेकिन जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है, तब कुछ लोगों का ध्यान इस ओर जाता है। सवाल है कि सरकार और संबंधित महकमों से जुड़े जिन अधिकारियों की निगाह बहुत छोटी गैरकानूनी गतिविधियों पर भी चली जाती है, वहां कसौली और धरमपुर के होटलों को दो की जगह छह मंजिला बनाने पर उनका ध्यान क्यों नहीं गया? स्थानीय स्तर पर प्रशासन या पुलिस अफसरों की मिलीभगत के बिना ऐसे निर्माणों को कैसे अंजाम दिया जा सकता है! विडंबना है कि जब कोई ईमानदार अधिकारी कानूनों पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए सख्ती बरतता है तो उसकी जान ले ली जाती है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर गैरकानूनी गतिविधियों पर शुरुआत में ही लगाम कसी जाए, तो अपराधी तत्त्वों पर काबू पाना आसान होगा


हिंदुस्तान

अतिक्रमण और हत्या

अतिक्रमण विरोधी अभियान चले और हंगामा न हो, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है। ऐसे अभियानों के दौरान हुल्लड़-हंगामे से लेकर प्रदर्शन, नारेबाजी और यहां तक कि मारपीट की खबरें भी अक्सर आती ही रहती हैं। पर मंगलवार को हिमाचल प्रदेश की कसौली में जो हुआ, वह बताता है कि पर्यावरण की कीमत पर कारोबार कर रहे कुछ लोगों के हौसले कितने बढ़ गए हैं। असिस्टेंट टाउन प्लानर शैलबाला शर्मा के नेतृत्व में जब अधिकारियों और कर्मचारियों की टीम अतिक्रमण हटाने के लिए वहां पहुंची, तो एक होटल मालिक ने गोली चलाकर शैलबाला शर्मा की हत्या कर दी और एक कर्मचारी व एक मजदूर भी गोली लगने से घायल हो गए। यह ऐसा अतिक्रमण विरोधी अभियान नहीं था, जिसे स्थानीय अधिकारी अक्सर कागजी खानापूरी के लिए या फिर वसूली वगैरह के लिए चलाते रहते हैं। इस तरह का अभियान होता, तो शायद होटल वालों के चेहरे पर शिकन भी न आती। यह अतिक्रमण विरोधी अभियान सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चलाया जा रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिन के भीतर कसौली के 13 होटलों का अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था। यह समय सीमा पूरी होने वाली थी, इसलिए तोड़फोड़ होना लगभग तय ही था। इन होटलों को संवेदनशील पर्वतीय स्थान होने के कारण दो मंजिल तक निर्माण की इजाजत ही मिली थी, लेकिन कुछ ने तो छह मंजिला निर्माण तक कर लिया था। वैसे मूल रूप से यह आदेश नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का था, जिसे होटल मालिकों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को बरकरार रखा और यह भी कहा कि होटल व्यवसाय के नाम पर आम लोगों की जिंदगी से खिलावाड़ की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि ये होटल उस जगह बने हैं, जहां भूस्खलन का खतरा है।

यह खबर अखबारों और मीडिया में हर जगह आ गई, इसलिए बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ मामले का स्वत: संज्ञान लिया, बल्कि तल्ख स्वर में यह भी कहा कि अगर इसी तरह अधिकारियों की हत्याएं होती रहीं, तो उसे आदेश पास करना ही बंद करना पड़ेगा। क्योंकि यह एक अधिकारी की हत्या का मामला है, इसलिए राज्य सरकार पहले ही अपराधी को पकड़ने के लिए सक्रिय दिख रही है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद यह प्रक्रिया निश्चित तौर पर तेज होगी। यहां एक और सवाल उठाने की जरूरत है कि सरकार अतिक्रमण विरोधी अभियान के इस खतरे को पहले ही क्यों नहीं भांप सकी और अभियान के लिए गए अधिकारियों व कर्मचरियों को पर्याप्त सुरक्षा क्यों नहीं दी गई?

उम्मीद है कि पुलिस हत्या करने वाले को जल्द ही पकड़ लेगी और  जिन 13 होटलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है, उनका अवैध निर्माण भी जल्द ही ढहा दिया जाएगा। लेकिन अतिक्रमण को लेकर वे सवाल बने रहेंगे, जो ऐसे हर मौके पर उठाए जाते हैं। क्या उन अधिकारियों पर कभी कोई कार्रवाई हो सकेगी, जिनकी शह पर इस तरह के निर्माण न सिर्फ होते हैं, बल्कि बरसों-बरस तक बने रहते हैं? अतिक्रमण एक स्थानीय मसला है और ऐसे मसले स्थानीय स्तर पर ही निपट जाने चाहिए। ऐसे मसले भी अगर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच रहे हैं और उसके बाद इस तरह के कांड हो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि तंत्र में कुछ ज्यादा ही गड़बड़ी है। उन क्षेत्रों में तो यह बिल्कुल भी बर्दाशत नहीं होना चाहिए, जो पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील हैं।


 दैनिक भास्कर

हमें स्वास्थ्य के साथ विकास चाहिए या बीमारी के साथ 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक आंकड़ों के अनुसार दुनिया के बीस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में भारत के 14 शहरों का शामिल होना इस देश के नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर चिंता का विषय है। सारे के सारे शहर उत्तर भारत के हैं और उनमें भी कानपुर का नंबर सबसे ऊपर है। गौरतलब है कि कानपुर वह शहर है जहां औद्योगिक विकास ठप हो चुका है। पिछले साल की सूची में ईरान का शहर सबसे ऊपर था। लेकिन अगर भारत इस दौड़ में आगे निकला है तो इसके दो कारण संभव हैं। या तो हमारे यहां प्रदूषण नियंत्रण में लापरवाही हुई है या फिर प्रदूषण को मापने वाली मशीनें मुस्तैदी से लग गई हैं। निश्चित तौर पर दिल्ली जो कि देश का सर्वाधिक प्रदूषित शहर हुआ करता था उसे पछाड़कर कानपुर का आगे निकलना इस बात का द्योतक है कि वहां न तो नियंत्रण के उपकरण स्थापित हो सके हैं और न ही उसके नियमों का क्रियान्वयन हो रहा है। इस स्थिति के बावजूद न तो दिल्ली और एनसीआर की स्थिति अच्छी है और न ही वाराणसी, आगरा, श्रीनगर, जयपुर और जोधपुर की। हालांकि अंतरराष्ट्रीय संगठन ने इस बात को स्वीकार किया है कि भारत में एलपीजी गैस के कनेक्शन देने से लेकर सरकार की तरफ से अन्य कई उपाय किए जा रहे हैं लेकिन, सच्चाई यह भी है कि भारत में प्रदूषण से होने वाली बीमारी से 11 लाख लोग सालाना मरते हैं। यह आंकड़ा दुनिया में प्रदूषण से होने वाली 70 लाख मौतों का लगभग सातवां हिस्सा है। कभी भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यह दलील दिया करती थीं कि हमें प्रदूषण और गरीबी में से एक को चुनना है। जाहिर है भारत ने गरीबी को दूर करने के लिए प्रदूषण को चुना पर अब वह स्थिति बदल चुकी है। प्रदूषण से होने वाली बीमारी और मौतों का आंकड़ा जिस गति से बढ़ रहा है उससे अर्थव्यवस्था पर अच्छे की बजाय बुरे असर दिखाई पड़ेंगे। एक सीमा से ज्यादा यह बोझ उत्पादन को कम करने के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवाओं का खर्च बढ़ाएगा। यही कारण है कि दुनिया के विकसित देशों के साथ ही चीन जैसी आर्थिक शक्ति भी प्रदूषण कम करने के लिए युद्ध स्तर पर जुट गई है। चीन ने अपने सर्वाधिक प्रदूषित शहरों को उस सूची से बाहर भी किया है। इसलिए भारत को देखना है कि उसे स्वास्थ्य के साथ विकास चाहिए या बीमारी के साथ। यह ऐसा प्रश्न है जिसकी अब उपेक्षा नहीं की जा सकती।


दैनिक जागरण

अवैध निर्माण का रोग

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हिमाचल प्रदेश के कसौली में होटलों के अवैध निर्माण के खिलाफ कार्रवाई करने पहुंचीं सहायक नगर नियोजन अधिकारी की एक होटल व्यवसाई ने जिस तरह गोली मार कर हत्या कर दी वह दुस्साहस की पराकाष्ठा ही है। इस खौफनाक घटना से यह भी पता चलता है कि अवैध निर्माण करने वाले किस तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देश की भी धज्जियां उड़ाने के लिए तैयार हैं। अपने होटल के बाहर अवैध निर्माण करने वाले कसौली के व्यवसायी ने जिस वक्त सहायक नगर नियोजन अधिकारी के साथ लोक निर्माण विभाग के एक कर्मचारी पर भी गोलियां दागी उस समय अन्य अनेक लोगों के साथ पुलिस भी मौजूद थी, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकी और यहां तक कि हत्यारे को पकड़ भी नहीं पाई। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने कानून के शासन को खुली चुनौती देने वाली इस घटना का स्वत: संज्ञान लिया इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि हत्यारे की गिरफ्तारी के साथ ही अवैध निर्माण करने वालों को भी बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन केवल इतनी ही अपेक्षा पर्याप्त नहीं है। अवैध निर्माण की समस्या को गंभीर संकट में तब्दील करने में सहायक बनने वालों के खिलाफ भी कठोर कार्रवाई अपेक्षित है। कसौली के मामले में पहले नेशनल ग्रीन टिब्यूनल और फिर सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि यहां करीब एक दर्जन होटलों ने अवैध निर्माण कर रखा है। कोई भी समझ सकता है कि इन होटलों ने अवैध निर्माण रातों-रात नहीं किया होगा। यदि नगर नियोजन या लोक निर्माण विभाग ने अवैध निर्माण शुरू होते ही नियम-कानूनों पर गौर किया होता तो समस्या इतनी गंभीर नहीं हुई होती कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता।1नि:संदेह ऐसा नहीं है कि केवल कसौली में ही होटल वालों ने नियम-कानूनों को ताक पर रखकर मनमाने अवैध निर्माण कर डाले। यह एक देशव्यापी समस्या है। अगर फर्क है तो केवल इतना कि पहाड़ी राज्यों में अवैध निर्माण और अतिक्रमण का रूप-स्वरूप देश के मैदानी प्रांतों से कुछ अलग है। आम तौर पर अवैध निर्माण शुरू होते ही वही सरकारी अमला घोर लापरवाही का परिचय देता है जिस पर उसे रोकने की जिम्मेदारी होती है। कई बार तो संबंधित विभागों के भ्रष्ट अधिकारी अवैध निर्माण को प्रोत्साहित भी करते हैं। अपने देश में कुछ ले-देकर हर तरह के अवैध निर्माण से आंखें फेर लेना इतना आम हो गया है कि अब करीब-करीब हर कोई यह काम करने को तत्पर दिखता है। बावजूद इसके हमारे नीति-नियंताओं को इसकी चिंता नहीं कि सार्वजनिक स्थलों को अवैध निर्माण या फिर अतिक्रमण के जरिये हड़पने की प्रवृत्ति एक राष्ट्रीय रोग बनती जा रही है। नतीजा यह है कि हमारे छोटे-बड़े शहर बेतरतीब विकास का शर्मनाक नमूना बन गए हैं। वे ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और शहरी जीवन को कष्टकारी बनाने वाली अन्य अव्यवस्थाओं से इसीलिए घिरते जा रहे हैं, क्योंकि नगर नियोजन संबंधी नियम-कानूनों को मनचाहे ढंग से तोड़ा जा रहा है। इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट के दखल मात्र से अवैध निर्माण की समस्या पर लगाम लग सकती है, क्योंकि एक तो हर मामला उस तक पहुंचता नहीं और दूसरे संबंधित सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारी समझने को तैयार नहीं।


प्रभात खबर

जहरीले होते शहर

भारत आर्थिक वृद्धि दर के लिहाज से आज दुनिया की अगली पांत के देशों में शुमार है, पर एक डरावना सच यह भी है कि वायु प्रदूषण से सर्वाधिक ग्रसित अधिकतर शहर भारत ही में है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हवा में घुले सल्फेट, नाइट्रेट, ब्लैक कार्बन के सूक्ष्म कणों की सालाना मात्रा के औसत के आधार पर तैयार की गयी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि दुनिया के सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण से प्रभावित 15 शहरों में 14 भारत में हैं. इन चौदह शहरों में कानपुर और फरीदाबाद जैसे कल-कारखाने वाले शहर शामिल हैं, तो शहरी विकास के पैमाने पर तुलनात्मक रूप से इनसे बहुत पीछे वाराणसी और गया जैसे धार्मिक शहर भी हैं. महज सात साल पहले हालात आज से कहीं ज्यादा बेहतर थे. साल 2010 में सबसे अधिक जहरीली हवा में सांस ले रहे शहरों में सिर्फ दिल्ली और आगरा का नाम ही था. वर्ष 2013 से 2015 के बीच शीर्ष के 20 प्रदूषित शहरों की सूची में भारत के शहरों की संख्या चार से बढ़कर सात हो गयी. अब ताजा फेहरिस्त में एक दर्जन से अधिक शहर हैं. परिवहन, निर्माण कार्य, औद्योगिक उत्पादन, ईंधन के परंपरागत साधनों के उपयोग जैसी तमाम गतिविधियों में वायु प्रदूषण की रोकथाम के उपायों की अनदेखी बहुत भारी पड़ रही है. रिपोर्ट का आकलन है कि फिलहाल दुनिया में 10 में से नौ लोग प्रदूषित वायु में सांस लेने को मजबूर हैं और सालाना 70 लाख लोग सिर्फ प्रदूषणजनित रोगों से मौत का शिकार हो जाते हैं. काल-कवलित होनेवालों में भारतीयों की तादाद (सालाना 11 लाख) भी दुनिया में सबसे ज्यादा है. प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उज्ज्वला योजना एक सार्थक पहल है.

दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में साठ फीसदी लोगों को अब भी स्वच्छ ईंधन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. उज्ज्वला योजना के अंतर्गत दो साल में लगभग पौने चार करोड़ गरीब परिवारों को स्वच्छ ईंधन मुहैया कराया गया है. परंतु सिर्फ इतने भर से संतोष करना ठीक नहीं है. जनवरी में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सरकार ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों के लिए विशेष योजना बनायी, तो सर्वोच्च न्यायालय ने ध्यान दिलाया था कि ऐसी योजना राष्ट्रीय स्तर पर बनायी जानी चाहिए, क्योंकि यह अब सिर्फ महानगरों की समस्या नहीं है.आर्थिक वृद्धि के कारण शहरों का तेज विस्तार हो रहा है, पर प्रबंधन पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है. रोजगार और समृद्धि के लिए परियोजनाओं को पूरा करने का दबाव में पर्यावरण और स्वास्थ्य की चिंताओं की अवहेलना जानलेवा होती जा रही है.ऐसी स्थिति में विकास की आकांक्षाओं को पूरा करने के साथ हवा-पानी को साफ रखने की चुनौती से निपटना सरकारों, उद्योग जगत और नागरिक समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए. इस दिशा में हम चीन जैसे विकासशील देश से बहुत-कुछ सीख सकते हैं जहां प्रदूषण की रोकथाम के लिए ठोस नीतिगत प्रयास किये जा रहे हैं.


देशबन्धु

कैसे कामदार हैं आप

विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यू एच ओ ने दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की है, जिसमें पहले 14 शहर भारत के हैं और 15वां कुवैत का है। इन 14 शहरों में देश की राजधानी दिल्ली, आर्थिक राजधानी मुंबई और प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र वाराणसी भी है। मुंबई को शंघाई और वाराणसी को क्योटो बनाने का दावा क्या हुआ, यह सवाल तो अभी पूछना बेकार है, लेकिन सरकार से यह तो पूछा जाना चाहिए कि चार सालों में आपने कैसा स्वच्छता अभियान चलाया है कि दुनिया के सर्वाधिक गंदे शहर आपके देश में ही मिले हैं। अब क्या मोदीजी इसमें भी पंडित नेहरू और उनके खानदान का दोष ढूंढेगे? जनता को बताएंगे कि नेहरू-गांधी परिवार के लोग पेड़-पौधों से प्यार करते हैं, इंदिरा जी को वनस्पति शास्त्र का अच्छा ज्ञान था, वे कई पेड़-पौधों को उनके नाम और विशेषताओं के साथ पहचानती थीं और भाइयों-बहनों इस खानदान के पर्यावरण के लिए प्रेम के कारण ही प्रदूषण बढ़ा है।

मोदीजी चाहें तो राहुल गांधी को चैलेंज भी दे सकते हैं कि वे 15 मिनट में किसी भी भाषा में 15 पेड़ों के नाम गिना दें। आखिर बीते चार सालों में वे यही तो करते आए हैं। आते ही झाड़ू हाथ में थामकर फोटो खिंचाई कि देश को साफ करके दम लेंगे। देश से पुराने नोटों पर झाड़ू फेर दी। स्वच्छता अभियान के नाम पर टैक्स लगाकर लोगों की जेब थोड़ी और ढीली कर दी, नमामि गंगे परियोजना में करोड़ों बह गए, गंगा अब पहले से अधिक गंदी और प्रदूषित हो गई है, नर्मदा की यात्रा निकालने का भी कोई लाभ नहीं दिख रहा, कावेरी पर फैसला आने के बावजूद विवाद जारी है और इन सबके बीच हवा, पानी, मिट्टी सबका प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।

डब्ल्यू एच ओ की रिपोर्ट मोदी सरकार के लिए आईना है, जिसमें वह अपने कामों का परिणाम देख सकती है। लेकिन इसे भाजपा सरकार की हठधर्मिता ही कहेंगे कि वह अपने चेहरे की धूल झाड़ने की जगह आईने को ही पोंछने में लगी रहती है, मानो इससे उसकी छवि स्वच्छ दिखेगी। कुछ बड़बोले नेता, मंत्री चाहें तो इस गंदगी के लिए वर्ग विशेष या प्रांत विशेष के लोगों को भी जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, क्योंकि ऐसा पहले हो चुका है। अपनी गंदगी घर से निकाल कर गली में डाल देना और फिर कहना कि मोहल्ला गंदा है, यही आदत तो है हमारे राजनेताओं और सरकारों की। जो हर चीज के लिए दूसरे को दोषी ठहराते हैं।

गंदगी की जड़ें कहां हैं, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। एक दिन कुछ घंटों के लिए बिजली बंद करने या कुछेक शहरों में पालीथिन के इस्तेमाल को रोकने से गंदगी खत्म नहीं होगी। कुछ दिनों का आड-ईवन फार्मूला भी प्रदूषण का स्थायी समाधान नहीं होगा। स्वच्छता के लिए मैराथन दौड़ कर भी हम कहां पहुंचे हैं, यह देख लीजिए। दरअसल यह सब कार्पोरेट और पूंजीवादी व्यवस्था के ढकोसले हैं, जो खुद आर्गेनिक फूड खाना चाहते हैं, लेकिन गरीब के लिए साफ पानी, साफ हवा मुहैया हो, यह उन्हें खटकता है। स्वच्छता के अपने ढोंग को आगे बढ़ाने के लिए सरकार और पंूजीपति आध्यात्म का सहारा भी बखूबी लेते हैं।

याद करें आर्ट आफ लिविंग का यमुना किनारे किया गया भव्य कार्यक्रम, जिसमें कई किसानों की खेती उजड़ गई, पर्यावरण का भारी नुकसान हुआ, एनजीटी को दखल देना पड़ा, लेकिन जीने की कला पर कोई संकट नहीं आया। इसी तरह ईशा फाउंंडेशन के जग्गी वासुदेव ने रैली फार रिवर निकाली। कई बड़े नेता उनके समर्थन में आगे आए। कई हफ्तों तक मिस्ड काल देकर इस मुहिम को समर्थन देने का नाटक भी चला। इन

सद्गुरू पर आरोप है कि कोयबंटूर में ईशा फाउंडेशन का आश्रम रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र में बनाया गया है। इन्हीं सद्गुरू के साथ कोयबंटूर में आदिशिव की 112 फीट ऊंची मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री मोदी ने किया। मोदीजी ने मुंबई में समुंदर में छत्रपति शिवाजी की 312 फीट ऊंची मूर्ति की आधारशिला भी रखी थी। क्या ऐसी भव्य मूर्तियों, कार्पोरेट प्रायोजित मैराथन या खर्चीली परियोजनाओं से पर्यावरण स्वच्छ रखा जा सकता है?

अगर ऐसा होता तो देश इतना गंदा नहीं होता। अदालत को ताजमहल का रंग बदलने पर सवाल उठाना पड़ रहा है, महाकाल में अभिषेक के लिए आरओ वाटर के इस्तेमाल का नियम बनाना पड़ रहा है, अमरनाथ यात्रा पर जयकारों के शोर के बारे में सचेत करना पड़ रहा है, और सरकार है कि अब भी स्वच्छ भारत अभियान का ढोल पीट रही है। सरकार न आप अपनी विरासत को संभाल पा रहे हैं, न धार्मिक स्थलों को प्रदूषण की मार से बचा रहे हैं, न आम जनता को साफ पानी और हवा का हक दे रहे हैं, तो क्या आपका सारा ध्यान उद्योगपतियों की बरकत पर लगा हुआ है, जो जल, जंगल, जमीन सब पर अपना हक जमा रहे हैं, विकास के नाम पर गंदगी दे रहे हैं और दुनिया में नाम भारत का खराब हो रहा है। कैसे कामदार हैं आप, देश को साफ करने के लिए कुछ तो सही करिए।


Indian Express

Flawed Unjust

Indian universities, like most other institutions in the country, were historically the exclusive preserve of a privileged caste elite. It is to make them more inclusive and representative of the larger social matrix of castes and communities that the country has legislated reservation policies, with emphasis on clear-cut quotas.

Considering the unique hierarchical character of the caste system, the founders of the Republic legislated for public policies that would ensure equality of opportunity and outcome. The transformation has been slow since many underprivileged groups suffer from centuries of historic social disadvantage and are lacking in a large pool of educationally empowered persons.

The University Grants Commission’s new norms on reservation in faculty appointments, based on an Allahabad High Court judgment of April last year, threatens to undo even the marginal gains that the country’s affirmative action programme has achieved in making university faculties truly representative of India’s social diversity.

A projection by Banaras Hindu University (BHU) regarding vacancies reported in May 2017 reveals that the number of persons belonging to Scheduled Castes and Tribes and OBCs among academic staff will fall drastically if it were to implement the new formula on reservations — UGC wants the department to be treated as the unit while deciding the quota instead of the university as a whole.

Accordingly, the number of posts reserved for SCs in BHU will fall by half and those for STs by nearly 80 per cent. This newspaper had reported that only one of the 52 vacant positions at the Indira Gandhi National Tribal University in Madhya Pradesh is now available for a reserved candidate — as per the old norm, 20 of these positions would have been kept for persons from SC, ST and OBC communities.

The principle that outlines India’s affirmative action programme is that in a stratified society every strata ought to be truly representative of the country’s diverse population. The Centre should not allow this principle to be compromised. It has already pleaded before the Supreme Court that the high court order “drastically reduces, and in many departments completely wipes out, the representation of members of SC/ST community”. The Centre must now advice the UGC to put its directive on hold pending the apex court’s ruling on its plea.

Any dilution of the reservation norms would be deemed by the SC and ST population as a challenge to their constitutional rights and upset the fraught social relations. The Dalits, especially, are aggrieved over the rise in violence against them and the Supreme Court’s ruling on the SC/ST Atrocities Act. A restive Dalit community indicated during the April 2 protest that it is deeply concerned and suspicious of the political mainstream’s commitment towards its welfare. It is a perception the government’s needs to proactively allay.


 Times Of India

Enable Don’t Disable

In a welcome move, government has issued instructions to mobile phone operators to accept alternative identification documents such as driving licences, passports and Voter ID cards in lieu of Aadhaar for issuing phone SIMs. This comes after many instances of phone SIMs being denied to individuals due to lack of Aadhaar had come to light. Mobile phone companies cite earlier instructions given by the telecom department to justify their actions. Meanwhile, the telecom ministry insists that it had given such instructions after the apex court’s observations in the Lokniti Foundation case. With the Supreme Court recently clarifying that it had given no such directives to seed Aadhaar with mobile numbers, the different players involved have been caught passing the buck.

There’s no denying that the earlier instructions were proving to be impediments. Non-resident Indians and foreigners travelling to India were particularly harassed as they were being denied mobile SIMs for failure to produce Aadhaar cards (while Indians travelling abroad can easily pick up mobile SIMs). Aadhaar-related restrictions made no sense when the government is trying to attract foreign tourists, spur local businesses and promote ‘ease of living’.

True, telecom companies have no interest in harassing customers. But an intimidating atmosphere was created where Aadhaar was seen to be mandatory for all manner of services. From getting birth and death certificates to operating bank accounts, Aadhaar was pushed as the most essential identity document. Government has now clarified that many of these services don’t necessarily need Aadhaar and the Supreme Court has indefinitely extended the deadline for Aadhaar-linking in several areas till it gives a final ruling on the matter. Yet, Aadhaar today has become the subject of controversy when it was originally meant to ease administration and help people.

In fact, Aadhaar was initially supposed to help in implementation of social welfare schemes and enable direct benefit transfers to marginalised sections of society. It’s reasonable that government should want to use Aadhaar for matters such as elimination of duplicate PAN cards. But then telling people to link their bank accounts to Aadhaar was superfluous as PAN and bank accounts were already linked. Such pointless exercises diverted focus from Aadhaar’s benefits to concerns over denial of services and privacy. The government must change its approach to Aadhaar, making it an enabler rather than disabler.


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Of the many polite pretences that have developed with constitutional cover, one is the neutrality of the governor of a state. Not that there are no governors who follow this constitutional principle. But, since the appointment of governors depends entirely on the ruling government at the Centre, the dominant party naturally likes to select its loyal members, expecting more loyalty as a result. Of course, the necessity of having governors can itself be questioned. One of his functions is to report to the Centre in the case of a breakdown in the state’s law and order that would demand president’s rule. History, unfortunately, has shown that governors have been most effective in this role in states ruled by parties opposed to the dominant party in the Centre. In spite of all this, the appearance of neutrality is an integral part of administrative decorum. So when the governor of Madhya Pradesh and former chief minister of Gujarat, Anandiben Patel, is recorded giving specific advice to Bharatiya Janata Party leaders on how to get votes in the assembly elections, it is enough to cause a furore in Opposition ranks. It is not credible that Ms Patel is unaware of what the position of governor entails. Possibly, as a BJP faithful, she has imbibed enough of the party’s self-confidence not to bother about constitutional proprieties. That alone can explain her casualness regarding malnourished children — BJP leaders should adopt them to win votes — and the patronizing reference to villagers whom BJP leaders should sit with and pat on the back. All this, Ms Patel explained, is to make Narendra Modi’s dream of 2022 come true.

Ms Patel’s frankness about her loyalties led to quite a striking impropriety, but Kiran Bedi, the lieutenant-governor of Puducherry, appears to have given her close competition. At the sight of a dirty village, she directed that no villager should be given free rice unless the village was open defecation-free and cleansed of waste. Not only was Ms Bedi linking the rights of the poor with the success or failure of the Swachh Bharat Mission, but she was also exposing an ignorance of or indifference to the realities of rural existence that is unacceptable in a top administrator. The outrage this direction caused led her to withdraw it, but it remains a reminder of constitutional impropriety and executive overreach. A little less devotion to party ideals and a little more respect for inherited structures of governance seem urgently needed.