हिंदी अख़बारों में आज के संपादकीय- 12 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स 

कहाँ हम कितने स्वस्थ 

नीति आयोग द्वारा जारी हेल्थ इंडेक्स अलग-अलग राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति पर अच्छी रोशनी डालता है। इसके मुताबिक बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में केरल बड़े राज्यों में अव्वल है, जबकि यूपी इस श्रेणी में सबसे निचले पायदान पर है। सालाना परफॉर्मेंस के लिहाज से झारखंड सबसे आगे है। छोटे राज्यों की श्रेणी में मिजोरम सबसे ऊपर है, जबकि केंद्रशासित क्षेत्रों में लक्षद्वीप ने यह स्थान हासिल किया है। विभिन्न राज्यों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की दिशा में स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता शुरू कराने के लिहाज से नीति आयोग की यह पहल खासी अहम है। आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के मुताबिक इस रैंकिंग के पीछे आयोग का मकसद यह है कि अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों को तारीफ मिले ताकि वे और अच्छा करने को प्रोत्साहित हों। जो राज्य अच्छा नहीं कर पाए हैं उन्हें स्वाभाविक रूप से शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी, जो उन्हें अपने प्रदर्शन का स्तर सुधारने को प्रेरित करेगी। रैंकिंग तय करने में तीन प्रमुख कारक रहे। पहला और सबसे बड़ा मानक बनाया गया स्वास्थ्य संबंधी नतीजों को, जिसका वेटेज 70 फीसदी रखा गया। दूसरा मानक था गवर्नेंस और सूचना (12 फीसदी) और तीसरा था सरकारी खर्च और प्रक्रियाओं का (18 फीसदी)। जिन राज्यों की सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को बेहतर करने की जरूरत चुनावी मजबूरियों के तहत ही महसूस करती आई है, नीति आयोग की यह पहल उनकी संवेदना का विस्तार कर सकती है। यह रैकिंग राज्य सरकारों को अपनी जनता की नजर में गिराने या उठाने का काम भी कर सकती है। अच्छी बात है कि आयोग इस पहल का दायरा बढ़ाने वाला है। इसी साल जून तक आयोग 700 जिला स्तरीय अस्पतालों के प्रदर्शन के आधार पर उनकी रैंकिंग भी लेकर आ रहा है। अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों को महज तारीफ ही नहीं मिलेगी, उन्हें बेहतर संसाधन भी मुहैया कराए जाएंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय का यह फैसला भी घोषित हो चुका है कि नीति आयोग की इन कसौटियों पर खरा उतरने वाले राज्यों के लिए नैशनल हेल्थ मिशन के तहत होने वाले आवंटन में 10 फीसदी प्रोत्साहन राशि को दोगुना कर दिया जाएगा। नीति आयोग की ताजा पहल सरकारी तंत्र की सक्रियता बढ़ाने का एक मौलिक प्रयास है। इसके आखिरी नतीजों के लिए हमें लंबा इंतजार करना पड़ सकता है, लेकिन सरकारी तंत्र के सबसे निचले हिस्से तक प्रेरणा पहुंचाने, उसे अच्छे प्रदर्शन का कारण मुहैया कराने की यह कोशिश निश्चित रूप से काबिले-तारीफ है। इसका दूसरा पहलू यह है कि संसाधन बढ़ाए बगैर महज तारीफ, निंदा और होड़ के बल पर जमीनी हकीकत में एक हद से ज्यादा बदलाव नहीं लाया जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो रैंकिंग जारी करने जितना ही जरूरी यह भी है कि केंद्र सरकार अपने स्वास्थ्य बजट का स्वास्थ्य सुधारने का पक्का इंतजाम करे।


दैनिक जागरण

चुनाव आयोग की सही मांग

राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए दायर की गई जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, लेकिन चुनाव आयोग की इस मांग पर विचार किया जाना वक्त की जरुरत है कि उसे कुछ और अधिकार प्रदान किये जाएं। चुनाव आयोग ने इस याचिका सिलसिले में हलफनामा दायर कर अपनी जिन मांगों का उल्लेख किया है वे कोई नईं नहीं हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि न तो राजनीतिक डाल उन पर गंभीरता से विचार करने के लिए तैयार दिख रहे हैं और न ही किस्म-किस्म के सुधारों की जरूरत जताने वाली सरकारें। यह समझाना कठिन है कि जब अन्य क्षेत्रों में वक्त की जरूरत के हिसाब से सुधारों का सिलसिला कायम है तब फिर चुनाव सुधारों की दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ा जा रहा है। चूंकि चुनाव सुधारों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा इसलिए राजनीति राजनीति से जुड़े सुधार भी प्राथमिकता सूची से बाहर ही हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि चुनाव सुधारों के साथ-साथ राजनीति से सम्बंधित सुधारों को भी एजेंडे पर लिया जाए। चूंकि चुनाव सुधारों का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुंच गया है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि वह आयोग को और अधिक सक्षम बनाने में सहायक साबित होगा। चुनाव आयोग एक अर्से से यह मांग कर रहा है कि उन लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहियेजिंके खिलाफ ऐसे मामले चल रहे हैं जिनमें उन्हें पांच वर्ष या इससे अधिक की सजा हो सकती है। उसने यह भी रेखांकित किया है कि कम से कम उन लोगों को तो चुनाव लड़ने से रोकना ही चाहिए जिनके खिलाफ चल रहे मामलों में आरोपपत्र भी दायर हो गया हो।

चुनाव आयोग की इस मांग को भी प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाना चाहिए कि उसे राजनीतिक दलों की मान्यता ख़त्म करने का अधिकार मिले। चुनाव आयोग का इस अधिकार से लैस होना इसलिए आवश्यक है. क्योंकि पिच्च्ले कुछ समय से इस तरह के संगठनों की सक्रियता बढ़ रही है जो अराजकता का सहारा लेकर राजनीति के मैदान में उतरना चाहते हैं। अगर ऐसे संगठनों को राजनीतिक दलों के रूप में तब्दील होने की सुविधा मिलती रही तो राजनीतिक एवं सामजिक परिदृश्य तो और अधिक दूषित होगा ही, कानून एवं व्यवस्था के समक्ष भी नए-नए खतरे पैदा होंगे। न्यायपालिका के साथ-साथ कार्यपालिका एवं विधायिका को इस पर विचार करना चाहिए कि अराजक संगठनों को खुद को रानीतिक दलों में तब्दील करने की सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? विडंबन यह है कि चुनाव आयोग पिछले दो दशक से जिन प्रमुख सुधारों की जरूरत जताता चला आ रहा है उन पर सुप्रीम कोर्ट ने तो यदा-कदा गंभीरता का परिचय दिया है, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने तो कुल मिलाकर उपेक्षा का भाव ही दिखाया है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वालों की अनेक दुष्प्रवृतियों पर रोक लगाने में मुश्किलें आ रही हैं। यही सोचा जा रहा है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के विचार को आगे बढाकर ही अभीष्ट की पूर्ती की जा सकती है तो यह सही नहीं है। इस विचार के साथ अन्य अनेक कारणों पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए।

 


अमर उजाला

कब सीखेंगे हम?

जम्मू के सुंजवां सैन्य सिविर पर आत्मघाती हमला बोलने वाले आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा जा चुका है, लेकिन उनका रिहायशी इलाकों में घुस जाना बताता है कि हमने इस तरह के पिछले हमलों से कोई सबक नहीं सीखा। आतंकी हमले के बाद जवाबी कार्रवाई और सैन्य परिवारों के लोगों के लिए बचाव अभियान चलाते हुए सुरक्षा बलों ने जिस तत्परता और दूरंदेशी का परिचय दिय्स वह बेशक सराहनीय है। लेकिन अफजल गुरु और मकबूल भट्ट जैसे आतंकियों की बरसी को देखते हुए आतंकी हमले का पहले से एलर्ट होने के वाबजूद सुरक्षा के मोर्चे पर बरती गई कोताही अखरती है। आतंकियों की बढ़ती गतिविधियों के पीछे उनकी बढ़ती हताशा एक वजह हो सकती है: जम्मू-कश्मीर में पंचायत होने वाले हैं, और हमारी लोकतांत्रिक गतिविधियां इस्लामाबाद को खटकती हैं। तब तो और भी, जब पाक अधिकृत कश्मीर में उसकी तानाशाही का वहां की जनता विरोध करने लगी है। पर इसी वजह से सुरक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर बेहद चुस्ती और सतर्कता बरते जाने की जरुरत है। इसके विपरीत सुंजवां सैन्य शिविर पर हुआ हमला खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों के बीच तालमेल के अभाव का सुबूत तो है ही, इससे यह भी पता चलता है कि उचित सुरक्षा ढाँचे के अभाव में हमारे सैन्य ठिकाने आतंकी हमलों के लिए अब भी आसान हैं। पिछले करीब डेढ़ दशक में जम्मू कश्मीर स्थित सैन्य शिविरों में आत्मघाती हमलों में बढ़ोत्तरी हुई है। यह ठीक है कि आत्मघाती हमलों को रोक पाना आसान नहीं होता, लेकिन कुछ आतंकी रेकी करने के बाद लम्बी लड़ाई की तैयारी करते हुए सैन्य शिविरों के रिहाइशी इलाकों में बेरोकटोक घुस जाते हैं, तो यह हमारी दयनीयता का ही उदाहरण है। इस आतंकी हमले में सुरक्षा चूक का पता लगाने के लिए सेना ने कोर्ट ऑफ़ इन्कवाइरी का आदेश दिया है। लेकिन बिचलित करने वाला तथ्य यह भी है कि जनवरी 2016 में पठानकोट एअरबेस पर हमले के बाद तीनों सेना की एक उच्च स्तरीय कमेटी ने जो सिफारिशें की थीं उन पर सरकार ने अभी तक अमल नहीं किया है। जाहिर है, जम्मू कश्मीर के तमाम सैन्य शिविरों को अचूक सुरक्षा व्यवस्था से लैस करने का यही समय है। अगर सैन्य ठिकाने ही असुरक्षित रहेंगे, तो देश की सुरक्षा का  क्या होगा।


राजस्थान पत्रिका

जड़ पर हो प्रहार

सैन्यकर्मी जान गंवाकर भी मातृभूमि की सुरक्षा कर रहे हैं लेकिन ऐसी घटनाओं का बार बार होना इंटेलीजेंस की काबिलियत पर शक खड़ा करता है।

जम्मू स्थित सुंजवां सैन्य छावनी पर आतंकी हमला हमारी गुप्तचर नाकामी का बड़ा उदाहरण है। हर बार सरकार दावे करती है कि छावनियों व् सैन्य संस्थानों विशेषकर पाक से लगी सीमा पर ऐसे ठिकानों की सुरक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। ये दावे थोथे ही साबित हो रहे हैं। 2014 से अब तक आतंककारी 14 सैन्य ठिकानों को निशाना बना चुके हैं जिनमें करीब चार दर्जन सैन्कर्मी शहीद हो चुके हैं। इसी सुंजवां छावनी पर 15 वर्ष पहले भी हमले में 12 जवान शहीद हुए थे। शनिवार के हमले के बाद सेनाध्यक्ष मौके पर मौजूद हैं। एनआईए और गरुड़ कमांडो भी कार्रवाई में लगे हैं। गृहमंत्री का वही रटारटाया बयान आया कि देश का सिर नहीं झुकाने दिया जाएगा। बेशक सैन्यकर्मी जान गंवाकर भी मातृभूमि की सुरक्षा कर रहे हैं लेकिन ऐसी घटनाओं का बार बार होना इंटेलीजेंस की काबिलियत पर शक खड़ा करता है। जब पता था कि आतंकी अफजल गुरु की 9 व मकबूल बट की 11 फरवरी को बरसी पर इन दिनों आतंकी हमले कर सकते हैं। फिर क्यों नहीं सैन्य ठिकानों और सैन्य परिवारों के रिहायशी इलाकों पर सुरक्षा कड़ी की गई? क्यों विधानसभा में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाले विधायक अभी तक आजाद हैं? राजस्थान में पाक सीमा के निकट बीएसएफ के एतराज के बावजूद खनन की इजाजत क्यों दी गई? क्या देश सुरक्षा से राजस्व बड़ा है । राजस्थान और केन्द्र में भाजपा नीत सरकार है। क्या वह इस कृत्य पर गौर करेगी? हमारे प्रधानमंत्री फलस्तीन, जॉर्डन और खाड़ी देशों में पाक विरुद्ध माहौल बना रहे थे और आतंकी हमारी सुरक्षा का मखौल। केन्द्र को तय करना होगा कि कश्मीर सहित पूरे देश में आतंकी हमला न हो। सुरक्षा में ढिलाई की जांच कर दोषियों को कड़ी सजा दी जाए। पत्थरबाजों और आतंकियों की तरफदारी करने वालों से सख्ती से निपटा जाए। हम पर हमला होने पर कार्रवाई की नीति छोड़कर हमलावर को पहले ही नेस्तानाबूद करने की नीति अपनानी होगी। इजराइल हमारे सामने उदाहरण है। आतंकी पनप रहे हैं तो सीमा पार भी उनका खात्मा करना होगा। बिना युद्ध ही हमारे जवान और उनके परिजन कब तक जान गंवाते रहेंगे।


हिन्दुस्तान

प्रदूषण का खौफ 

मयूर शर्मा की पूरी उम्र दिल्ली में ही बीती है। यहीं पैदा हुए, पढ़े और बढ़े। एक तरह से यह उनका ही नहीं, उनके मां-बाप का भी शहर है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने अपने इस शहर और यहां रहने वाले अपने दोस्तों को अलविदा कह दिया और गोवा में जाकर बस गए। कारण- इस महानगर का प्रदूषण। मयूर का कहना है कि उन्हें इस शहर से बहुत लगाव है, लेकिन वह अपने बच्चे को प्रदूषण भरी जिंदगी नहीं देना चाहते। यहां यह भी बता दें कि एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर हाईवे ऑन माई प्लेट  नाम का कार्यक्रम आता है, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में बिकने वाले खान-पान पर केंद्रित है। मयूर शर्मा इस कार्यक्रम को अपने बचपन के दोस्त और पड़ोसी रॉकी के साथ होस्ट करते हैं। इसी प्रसिद्धि के कारण उनके दिल्ली छोड़ने की खबर सुर्खियों में आ गई। लेकिन अगर किसी को मयूर के इस कदम में प्रतिक्रिया की अति दिखाई देती है, तो वह गलत है। प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या इस कदर लोगों के दिमाग में घर कर गई है कि पश्चिमी देशों की नई पीढ़ी इससे भी कई बड़े फैसले करने लगी है। अमेरिका में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो सोचने लगे हैं कि प्रदूषण की समस्या को देखते हुए क्या उन्हें बच्चे पैदा करने चाहिए? कई ऐसे लोग हैं, जो बाकायदा यह फैसला ले चुके हैं कि वे बच्चे पैदा ही नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारण उनके बच्चे को अच्छा भविष्य मिल पाएगा। कंसीवेबल फ्यूचर नाम की संस्था ने पिछले दिनों जब बच्चों को लेकर युवा पीढ़ी की राय पूछी, तो उसे यह चौंकाने वाली जानकारी मिली।

सर्वे में पता चला कि कुछ की चिंता है कि चीजें जिस तरह बढ़ रही हैं, उनके बच्चों को अच्छा भविष्य नहीं मिल सकेगा। वहीं पिछले कुछ साल से जिस तरह मौसम अपनी अति दिखा रहा है, उसे लेकर बहुत से लोग भविष्य के प्रति आशंकित हो गए हैं। बार-बार आने वाले समुद्री तूफानों ने तटवर्ती इलाकों के एक बड़े हिस्से में लोगों का जीना हराम कर रखा है। वहीं रिकॉर्ड तोड़ गरमी और सर्दी की घटनाएं जिस तरह साल-दर-साल घट रही हैं, उसकी ठीक-ठीक भविष्यवाणी तो वहां के मौसम विज्ञानी भी नहीं कर पा रहे। ऐसे में, जो लोग अपने भविष्य के प्रति ही आशंकित हो उठे हैं, वे अपने बच्चों के भविष्य के बारे में भला क्या सोचेंगे। दूसरी ओर एक धारणा यह भी बन रही है कि ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी, तो जिंदगी महंगी हो जाएगी और बच्चों का लालन-पालन तो और भी महंगा हो जाएगा। ऐसा होता हुआ दिख भी रहा है। वहां समस्या इसलिए भी है कि अमेरिका की जन्मदर लगातार कम हो रही है, अब इसका एक और कारण दिखने लगा है।

यह हो सकता है कि नई उम्र के कुछ नौजवान इस मामले में प्रतिक्रिया की अति कर रहे हों। यह भी हो सकता है कि यह एक छोटे से वर्ग की प्रतिक्रिया ही हो, जिसके मुखर होने के कारण वह ज्यादा बड़ी दिख रही हो। लेकिन इससे यह तो जाहिर ही है कि ग्लोबल वार्मिंग को लोग अब न केवल वास्तविक खतरा मानने लगे हैं, बल्कि इसका खौफ उनके सिर चढ़कर बोलने लग गया है। कुछ लोग इस खौफ से एक उम्मीद भी बांध रहे हैं। उन्हें लगता है कि जनमानस का यह बदलाव सरकारों पर कुछ करने के लिए दबाव बनाने का काम करेगा। हो सकता है कि इस खौफ और प्रतिक्रिया की अति से ही समस्या से निपटने का कोई रास्ता भी निकले।


जनसत्ता

मालदीव की मुश्किल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच बीते हफ्ते मालदीव के राजनीतिक संकट को लेकर फोन पर हुई बातचीत से कोई रास्ता निकलने के संकेत तो फिलहाल नहीं मिले हैं, पर इस बातचीत ने चीन को चिंतित कर दिया है। पिछले दिनों जब मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने वहां के पूर्व राष्ट्रपति नशीद समेत नौ प्रमुख राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया, और पूर्व राष्ट्रपति मौमून गयूम के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के जजों को भी गिरफ्तार कर लिया, तो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में चीन अकेला प्रमुख देश था जिसने न तो इस घटनाक्रम की निंदा की न इस पर कोई चिंता जताई। दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ के साथ ही भारत और श्रीलंका जैसे मालदीव के पड़ोसी देशों ने भी नशीद से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करने का आग्रह किया था। पर अब किसी को इसमें संदेह नहीं है कि नशीद अपनी तानाशाही को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। मालदीव जैसे बहुत छोटे-से देश के राष्ट्रपति के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय की परवाह न करना आसान नहीं हो सकता। इसलिए नशीद चीन की मेहरबानी चाहते हैं।
चीन में खुद लोकतंत्र नहीं है। इसलिए उसे दुनिया में कहीं और लोकतंत्र की हत्या पर कोई दुख नहीं होता। अगर उसके आर्थिक और कूटनीतिक हित सध रहे हों, तो दुनिया में कहीं भी तानाशाही का साथ देने में वह संकोच नहीं करता। उसने यही म्यांमा में किया और यही मालदीव में कर रहा है। दिसंबर में चीन और मालदीव के बीच मुक्त व्यापार समझौता हुआ था। इस समझौते का हवाला देकर नशीद जहां बाहरी हस्तक्षेप की संभावना के खिलाफ चीन की मदद चाहते हैं, वहीं चीन पूरी तरह मालदीव को अपने प्रभाव में ले लेना चाहता है। यह न भारत को रास आ सकता है न अमेरिका को। सवाल है, क्या दोनों के पास मालदीव की दिशा को उलटने और चीन से निपटने की कोई रणनीति है? जार्डन से जारी भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के बयान से जाहिर है कि मोदी और ट्रंप, दोनों मालदीव में विधि के अनुरूप शासन और लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली की बहाली चाहते हैं। पर यह होगा कैसे?

एक बार, भारत ने मालदीव में अपने सैनिक भेजे थे। पर तब और अब की स्थिति में फर्क है। तब बाहरी आतंकियों से मालदीव को बचाने की वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति की गुहार पर भारत ने सैन्य मदद भेजी थी। मौजूदा स्थितियों में ऐसा करना किसी अन्य देश में दखलंदाजी की तरह देखा जा सकता है। कम से कम चीन तो यही मानेगा। यही नहीं, उसने परोक्ष रूप से भारत को चेतावनी भी दी है, यह कहते हुए कि चीन नहीं चाहता कि मालदीव एक और टकराव का मुद््दा बने। गौरतलब है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी, जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने तथा डोकलाम हाल में भारत और चीन के बीच कई बार तकरार के विषय बने हैं। अब मालदीव को लेकर भी भारत और चीन के रुख में जमीन आसमान का फर्क है। चीन को छोड़ दें, तो भारत के नजरिए से अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रजामंदी है। सवाल है कि तानाशाही के चंगुल से मालदीव को निकालने और चीन की काट करने में इस सहमति का कैसे उपयोग किया जाए।


देशबन्धु

कब तक बहेगा सैनिकों का खून

जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर और उसके साथी अभी हफ्ता भर पहले ही एक वीडियो में भारत पर हमले का संकल्प दोहराते हैं

जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर और उसके साथी अभी हफ्ता भर पहले ही एक वीडियो में भारत पर हमले का संकल्प दोहराते हैं। 9 फरवरी को अफजल गुरू को फांसी दिए जाने की बरसी के मद्देनजर खुफिया एजेंसियों का एलर्ट भी जारी होता है कि आतंकी हमले की आशंका है। 9 तारीख को तो नहीं लेकिन 10 फरवरी की अलसुबह जम्मू के सुंजवान के आर्मी कैंप पर आतंकी हमला हो जाता है। अब इसे सुरक्षा बलों की चूक मानें या सरकार का ढीला रवैया कि तमाम एहतियात के बावजूद आतंकी हमले होते हैं।

सुंजवान सैन्य शिविरि में केवल सैनिक ही नहीं बल्कि उनके परिजन भी थे। इस हमले का संदेह जैश ए मोहम्मद पर ही जा रहा है। इससे पहले उरी और पठानकोट पर भी आतंकियों ने इसी तरह हमला किया था। पाकिस्तान की ओर से सीमा पर गोलीबारी, घुसपैठ का सिलसिला थम नहीं रहा है। शायद ही कोई दिन बीतता हो, जब हमारे जवान शहीद न होते हों। इस बार भी पांच जवान शहीद हो चुके हैं। जबकि कई सैनिक और उनके परिजन घायल हैं। एक सैनिक की बेटी की भी मौत की खबर है। हमले में शहीद हुए लेफ्टिनेंट मदन लाल चौधरी की एक रिश्तेदार गर्भवती थीं, वे भी घायल हुईं, उन्हें किसी तरह बचाया गया, और उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया।

जम्मू-कश्मीर से दूर, गोलियों और बम के धमाकों की आवाज से दूर रहकर इन खबरों को पढ़ना-सुनना एक बात है, लेकिन जिन लोगों को इन भयावह स्थितियों का सामना करना पड़ता है, उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन है। दुख की बात यह है कि हमारी सरकार जुबानी खर्च से ज्यादा कुछ कर ही नहीं पा रही है। उसके पास 56 इंच की छाती का ढोल पीटने के अलावा लगता है कुछ बचा ही नहीं ेहै। बहुत हुआ तो सर्जिकल स्ट्राइक का दंभ दिखाया जाता है, कि हमने कैसे मुंहतोड़ जवाब दिया।

सरकार यह नहीं देखती है कि उसकी नीतियों और नाकामियों का खामियाजा सैनिकों और उनके परिजनों को उठाना पड़ रहा है। अभी भी केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि आश्वस्त रहिए, हमारी सेना और सुरक्षा बल प्रभावी तरीके से अपना काम कर रहे हैं और अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वे कभी भी किसी भी भारतीय का सिर शर्म से झुकने नहीं देंगे। माननीय मंत्रीजी को यह कौन समझाए कि सेना तो अपना काम कर ही रही है। लेकिन आप लोग अपना काम कब करेंगे, ताकि सैनिकों को इस तरह अपनी जान व्यर्थ न गंवानी पड़े। सरकार से तो इतना भी नहीं हुआ कि सैन्य शिविरों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए धनराशि बढ़ा देती।

जनवरी 2016 में पठानकोट हमले के बाद सेना के वाइस चीफ लेफ्टिनेंट जनरल रिटायर्ड फिलिप कम्पोज की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई थी। इसने घेरेबंदी में टूट की पहचान करने वाला तकनीकी सिस्टम लगाने और खुफिया व्यवस्था मजबूत बनाने पर जोर दिया था। सैन्य ठिकानों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए 2000 करोड़ रुपये अलग से दिए जाने की मांग की गई थी। लेकिन पिछले साल रक्षा मंत्रालय ने इस मांग को वाजिब नहीं माना था। अब बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए मंत्रालय ने कुछ दिन पहले इस मद में 1487.27 करोड़ रुपये जारी करने का फैसला किया है। शायद साल के अंत तक सैन्य शिविरों का सुरक्षा घेरा बढ़ जाए। लेकिन इससे आतंकी हमले होने रुक जाएंगे, यह कौन सुनिश्चित करेगा। इस बार के हमले के पीछे पंचायत चुनाव का होना भी बताया जा रहा है, क्योंकि कुछ लोग नहीं चाहते कि राज्य में लोकतंत्र मजबूत हो। लेकिन हमारे राजनीतिक दल जिस तरह का व्यवहार दिखा रहे हैं, उससे भी लोकतंत्र मजबूत तो कतई नहीं हो रहा है। भाजपा इसे रोहिंग्या शरणार्थियों और जम्मू के आसपास रहने वाले बांग्लादेशियों से जोड़ रही है। किसी पर भी शक करने के लिए कुछ आधार होना चाहिए।

लेकिन रोहिंग्याओं पर तो शक इसलिए ही किया जा रहा है क्योंकि वे मुसलमान हैं और इसलिए वे आतंकियों की मदद कर सकते हैं। और उन पर यह शक तब से किया जा रहा है, जब से वे भारत में शरण लेने आए। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भाजपा विधायकों ने पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता अकबर लोन ने पाक जिंदाबाद के नारे लगाए। लोन कहते हैं, हां ये सच है कि मैंने नारे लगाए। ये मेरा निजी मामला है। मुझे नहीं लगता कि इससे किसी को दिक्कत होगी।

आतंकी त्रासदी के बाद पाक जिंदाबाद के नारे लगाना तो दुखद है ही, उससे भी दुखद यह है कि विधायक लोन इसे अपना निजी मामला बता रहे हैं। जब वे भारतीय लोकतांत्रिक पद्धति के तहत जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं, और भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ऐसे में वे विधानसभा में पाक जिंदाबाद के नारे लगाने को अपना निजी मामला कैसे बता सकते हैं? पाकिस्तान के प्रति दोस्ताना रवैया रखना या उससे सहानुभूति रखना गलत नहीं है, लेकिन जब आपकी सेना और जनता पर हमला हो रहा हो, तब तो आपको अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट करनी चाहिए। आश्चर्य यह है कि जेएनयू में कथित तौर पर देशविरोधी नारे लगाने के जुर्म में छात्रों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो जाता है और जो विधायक खुलेआम विधानसभा में पाक जिंदाबाद कहता है, उस पर सरकार मौन है।


प्रभात खबर

आधार पर हो स्पष्टता

यह हमारे शासन तंत्र की संभवतः सबसे बड़ी त्रासदी है कि सामान्य नागरिक आम तौर पर नियमों-कानूनों से अनभिज्ञ होते हैं तथा प्रशासनिक अधिकारी और कर्मचारी भी ठीक से उन्हें लागू करने के लिए गंभीर नहीं हॉट. राजनीतिक नेतृत्व भी ऐसे मामलों में कम हीओ रूचि दिखाता है. सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता का प्रधान कारण यही हैसेवाओं के लाभ कप लोगों तक समुचित तरीके से पहुंचाने के इरादे के साथ आधार संख्या की शुरुआत हुई थी और हमें इसके लाभ भी दिखने लगे हैं, लेकिन अनेक ऐसी ख़बरें भी आती रहती हैं कि आधार संख्या न होने के कारण किसी निर्धन को राशन नहीं मिल पाया या किसी बीमार का उपचार नहीं किया गया. कई जरूरी सेवाओं को प्राप्त करने में भी परेशानियों के उदाहरण हैं आधार तंत्र के संचालन और नियमन के लिए जिम्मेदार संस्था आधार प्राधिकरण ने स्पष्ट किया है कि आधार कानून में यह साफ व्यवस्था है कि किसी भी नागरिक को आधार संख्या नहीं होने के कारण जरूरी सेवाओं और सुविधाओं से वंचित नहीं रखा जा सकता. प्राधिकरण ने इस बारे में सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को निर्देश भेज दिया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस स्पष्टीकरण के बाद किसी भी नागरिक को बिला वजह परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा. वर्ष 2016 के आधार कानून में यह उल्लिखित है कि आधार संख्या नहीं होने या किसी कारण उसका सत्यापन न होने पर पहचान के लिए वैकल्पिक तरीकों का सहारा लिया जा सकता है. ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि इसके बावजूद परेशान लोगों को राशन या इलाज जैसी बेहद जरूरी सेवायें देने से इन्कार क्यों किया गया? ऐसा तो नहीं है कि संबद्ध विभागों या कार्यालयों को कानूनी व्यवस्थाओं की जानकारी नहीं रही होगी. प्राधिकरण ने अपने निर्देश में आगे से गैर कानूनी तरीके से सेवाओं से वंचित करने पर शिकायत कराने को कहा है और भरोसा दिलाया है कि कठोर कार्रवाई की जायेगी. आधार कानून संसद द्वारा पारित किया गया है और आधार प्रणाली को लागू करने वाले सभी विभागों और उनमें कार्यरत कर्मचारियों को उसके प्रावधानों की पूरी समझ होनी चाहिए, यह ठीक से लागू हो इसकी जिम्मेदारी सरकारों और उनके शीर्ष अधिकारियों की है. यदि सरकारी महकमें ही कायदे-कानूनों का उल्लंघन करेंगे या उन्हें मनमाने ढंग से लागू करेंगे तो आम लोग अपनी परेशानियां लेकर कहां जायेंगे. यह ठीक है कि शिकायत दर्ज कराने की व्यवस्था है और आधार प्राधिकरण ने भी अपने निर्देश में स्पष्ट किया है, किंतु राशन की कमी और आपात चिकित्सा जैसी समस्याओं से जूझते गरीबों-वंचितों के पास शासन प्रशासन के दरवाजे खटखटाने की मोहलत नहीं होती है. इसलिए जरूरी यह है कि सरकारें आधार कानून के प्रावधानों को ईमानदारी से लागू कराएं तथा यह सुनिश्चित करें कि लोगों तक सेवायें ठीक से पहुंचें.