‘लिंचिंग मीडिया’ के दौर में तीसरे प्रेस आयोग की ज़रूरत!

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रामशरण जोशी

 

सामंतवादी मानसिकत और कॉरपोरेट पूंजीवाद के फासीवाद की प्रोडक्ट वर्तमान व्यवस्था की सड़ांध अब उफान पर है. इसके मेनहोलों से गटर की गंदगी  रह रह कर बाहर आ रही है.देश का सामजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक और राजनीतिक वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है.

फ्रांस के साथ रफेल विमानों का सौदा,बालिका -महिला आश्रमों की अघोषित चकलाघरी,मोब लिंचिंग, लवजेहाद -गोरक्षा जेहाद, 40 लाख लोगों को एक ही झटके में घुसपैठिया कह देना और अंत में ‘मीडिया लिंचिंग’ की घटनाओं ने इस व्यवस्था के कोढ़ को उजागर कर दिया। इसके चेहरे पर जगह जगह कोढ़ फूट आये हैं. धर्म-मजहब और क़र्ज़-वितरण की क्रीम से यह व्यवस्था अपने चहरे को ढकना चाहती है. लेकिन, कब तक ?

क्या इन घटनाओं  के साथ देश का तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया न्याय कर रहा है? क्या उसके चैनलों पर रफेल, मुजफ्फरपुर,देवरिया तथा अन्य अघोषित कथित चकलाघरों, हापुड़-अलवर लिंचिंग पर गंभीर चर्चाएँ हुईं? किस तरह कैमरे पर कथित हत्यारे लोगों की  हत्या में गर्व के अनुभव की बात करते हैं, क्या ‘गोदी मीडिया’ ने इस पर कोई बहस कराई?

आखिर इन आश्रमों में मासूम बालिकाओं के  खरीद-फरोख्त क्यों होती है और बिहार की मंत्री क्यों इस्तीफ़ा देती हैं ? क्या इन सवालों का जवाब नहीं चाहिए? वे कौनसी ताकतें हैं जिनके बल पर मुजफ्फरपुर का गिरफ्तार  खलनायक हँसता है और उसकी हंसी देश को चिढ़ाती है? देवरिया के आश्रम संचालक का परिवार के तार कहाँ कहाँ जुड़े हुए हैं? एक तरफ गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन के अभाव में दर्जनों बच्चे मर जाते हैं वहीँ इन आश्रमों के एन.जी.ओ.संचालकों में यह व्यवस्था प्रचुर मात्र में आक्सीजन भरती रहती है.क्या मीडिया में इस मुद्दे पर बहस नहीं होनी चाहिए ?

हाल ही में एक चैनल ने अपने तीन प्रमुख पत्रकारों की लिंचिंग करदी. यह लिंचिंग किसने करवाई और किन ताकतों के दबाव में मालिकान आये, प्रधानमंत्री  कार्यालय की क्या भूमिका रही, रोज़गार-बेरोजगार का क्या सत्य है, इसका भी पर्दाफाश हो चुका है. लेकिन गोदी मीडिया खामोश है. उसे तो प्राइम टाइम के लिए चाहिए आतंकवाद, असम घुसपैठिये, रोहिंग्या मुस्लिम, गो तस्करी व लिंचिंग,कांवड़ियों पर पुष्प वर्षा जैसी जायकेदार सामग्री. उसके मेन्यू से सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकार के मुद्दे गायब हो चुके हैं.

करीब एक दशक पहले इस लेखक ने  ‘तीसरे प्रेस आयोग’ के गठन की मांग की थी. एक लम्बा लेख लिखा था जिसमें  नेहरू और इंदिरा सरकारों द्वारा गठित दो दो प्रेस आयोगों की सिफारिशों की चर्चा की थी.उसकी अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशों को आज तक लागू नहीं किया गया है. कल की प्रेस और आज के मीडिया की हालत  किसी ‘बंधुआ मजदूर’ से अच्छी नहीं है. जब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार असुरक्षित हैं तब उनसे ईमानदारी की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. उनकी नियति कॉर्पोरेट पूँजी की गोद में बैठना है या मालिक द्वारा मीडिया हाउस से बाहर धकियाना है. लोकतंत्र कमज़ोर होता जा रहा है. देश की आला अदालत केंद्र और प्रदेश सरकारों को चेतावनी दे चुकी है.

इसलिए इस सड़ांध से कुछ निज़ात पाने और मीडिया की आज़ादी को पुनर्जीवित करने के लिए तत्काल एक बड़ा आयोग गठित किया जाना चाहिए।  जिसमें मीडिया संस्थानों से सम्बद्ध पत्रकार-गैर पत्रकारों के स्थायित्व, मीडिया स्वामीत्व के एकाधिकार की समाप्ति, क्रॉस मीडिया ओनरशिप का अंत,प्रेस परिषद का सशक्तिकरण, सरकारी विज्ञापनों का न्यायोचित वितरण, फेक न्यूज़ पर पाबंदी, पूर्व के दो आयोगों की सिफारिशों का पुनर्निरीक्षण  जैसे मुद्दों पर विचार किया जा सकता है. इस आयोग का व्यापक स्वरुप होना चाहिए जिसमें सरकार के अलावा मीडियाकर्मी, मालिकान, सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि,प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी ,न्यायाधीश जैसे लोगों को रखा जा सकता है. मत संग्रह भी कराया जाना चाहिए जिसमें पाठक,दर्शक और श्रोताओं से भावी मीडिया के स्वरुप के बारे में पूछ अ सकता है. याद रखें, जब तक गोदी और सजावटी मीडिया और पत्रकार रहेंगे, तब तक हमारा लोकतंत्र तथा संविधान असुरक्षित रहेंगे. इन पर हमेशा संकट के बादल मंडराते रहेंगे.

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया विजिल संपादक मंडल के सम्मानित सदस्य है।