बिसात-1967: लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद और अल्‍पमत में इंदिरा

अनिल जैन
काॅलम Published On :


सन् 1967 में हुए चौथे आम चुनाव से भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। इस आम चुनाव की काफी कुछ पृष्ठभूमि 1962 में हुए तीसरे आम चुनाव में ही तैयार हो गई थी। 1962 से 1967 के बीच जो कुछ हुआ उसकी गूंज लम्बे समय तक देश की राजनीति मे सुनी जाती रही। देश की राजनीतिक फिजा में यह सवाल यद्यपि काफी पहले से तैरने लगा था कि नेहरू के बाद कौन, लेकिन पहली बार इस सवाल से देश का सीधा सामना हुआ।

पहली बार देश को दो बड़े युद्धों का सामना करना पड़ा। पहले चीन से और फिर पाकिस्तान से। 1962 के आम चुनाव के कुछ महीनों बाद ही अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। यह एकतरफा युद्ध था। चीन के हाथों भारत को करारी शिकस्त खानी पड़ी। चीन से मिले धोखे से नेहरू का हिंदी-चीनी भाई-भाई का सपना चूर-चूर हो गया था। सारा देश स्तब्ध और मायूस था। नेहरू का सिर शर्म से झुक गया था। इतिहास में ऐसी पराजय का कोई उदाहरण नहीं था। हमारी सेना जिस तरह पीछे हटी थी उससे सबको सदमा लगा। विरोधियों ने नेहरू की बोलती बंद कर दी थी। नेहरू भी इस सदमे से उबर नहीं पाए और युद्ध के डेढ़ साल के भीतर ही उनका निधन हो गया। 1964 में उनकी मृत्यु के बाद गुलजारीलाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने और फिर चंद दिनों बाद नेहरू के उत्तराधिकारी के तौर पर देश की बागडोर लालबहादुर शास्त्री के हाथों में आ गई। फिर 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ। सोवियत संघ के हस्तक्षेप से युद्ध विराम और ताशकंद समझौता हुआ। ताशकंद में ही शास्त्रीजी की रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई और 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं।

देश चलाना इंदिरा गांधी के लिए भी नया अनुभव था। 1962 के आम चुनाव के बाद कुछ संसदीय सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे। 1963 में समाजवादी दिग्गज डॉ. राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे। इसी तरह स्वतंत्र पार्टी के सिद्धांतकार मीनू मसानी गुजरात की राजकोट सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। 1964 में समाजवादी नेता मधु लिमये भी बिहार के मुंगेर संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव जीत गए थे। यानी इंदिरा गांधी को घेरने के लिए लोकसभा में कई दिग्गज पहुंच गए। इसी दौरान देश की राजनीति में एक घटना और हुई। सैद्धांतिक मतभेदों के चलते 1964 में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का विभाजन हो गया। भाकपा से अलग होकर एके गोपालन, ईएमएस नम्बूदिरिपाद, बीटी रणदिवे आदि नेताओं ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन कर लिया।

यह थी 1967 के आम चुनाव की पूर्ण पृष्ठभूमि। संक्षेप में कहा जाए तो 1967 के आम चुनाव पर दो युद्ध और दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु की काली छाया साफ देखी जा सकती थी। जाहिर है कि आम चुनाव के मुद्दे भी इसी पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द ही थे। कांग्रेस के लिए नेहरू की गैर-मौजूदगी और इंदिरा गांधी की असरदार मौजूदगी वाला यह पहला आम चुनाव था। संक्रमण काल के इस चुनाव में इंदिरा गांधी की अग्नि परीक्षा होनी थी।

कांग्रेस की सीटें भी घटी और वोट भी

इस चुनाव में लोकसभा की कुल सीटें 494 से बढ़ाकर 520 कर दी गई थीं। बतौर मतदाता करीब 25 करोड़ लोगों ने इस चुनाव को देखा। इसमें करीब 13 करोड़ पुरुष और 12 करोड़ महिलाएं थीं। इस चुनाव मे 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मतदान किया था यानी मतदान का प्रतिशत करीब 61 रहा। चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे। कांग्रेस को करारा झटका लगा। उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले लोकसभा में उसका संख्याबल काफी कम हो गया। पिछले तीनों आम चुनावों में कांग्रेस को करीब तीन-चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार उसके खाते में मात्र 283 सीटें ही आईं यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा। उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी करीब पांच फीसदी की गिरावट आई। कांग्रेस को 1952 में 45 फीसदी, 1957 में 47.78 फीसदी और 1962 में 44.72 फीसदी वोट मिले थे पर 1967 में उसका वोट घटकर 40.78 फीसदी रह गया। आमतौर पर उसके दो-तीन प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती रही थी, लेकिन 1967 मे उसके सात उम्मीदवारों को जमानत गंवानी पड़ी। गुजरात, राजस्थान और ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी ने उसे झटका दिया तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली में जनसंघ ने। उसे बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों से भी कड़ी चुनौती मिली।

स्वतंत्र पार्टी दूसरे नंबर पर रही

इस चुनाव में नवगठित स्वतंत्र पार्टी कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर रही। उसने 178 सीटों पर चुनाव लड़कर 44 पर जीत हासिल की। उसे 8.67 फीसदी वोट मिले और उसके 87 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। इस चुनाव में जनसंघ की ताकत में भी इजाफा हुआ। उसने 249 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से 35 जीते और 112 की जमानत जब्त हुई। उसे 9.31 फीसदी वोट मिले। भाकपा को 23 और माकपा को 19 सीटों पर विजय मिली। इनका वोट प्रतिशत क्रमशः 5.11 और 4.29 रहा। भाकपा के 109 में से 41 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई जबकि माकपा के 59 में से 19 की। अगर भाकपा का विभाजन न हुआ होता कम्युनिस्टों को इस चुनाव में संभवतया और भी ज्यादा कामयाबी मिली होती। यही स्थिति समाजवादियों की भी रही। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) को 3.06 प्रतिशत वोटों के साथ 23 सीटें मिलीं और इतनी सीटें डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को भी मिली। उसे प्राप्त हुए वोटों का प्रतिशत 4.92 रहा। पीएसपी के 109 में 75 और सोशलिस्ट पार्टी के 122 में से 55 की जमानत जब्त हो गई। तमिलनाडु में द्रमुक 25 सीटों पर जीती। इस चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियों के 148 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे जिनमें से 43 जीते और 58 की जमानत जब्त हो गई। 866 निर्दलीय में से भी 35 जीतकर लोकसभा में पहुंचे जबकि 747 अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। इस चुनाव में कुल 2369 उम्मीदवार मैदान में थे जिनमें से 1203 की जमानत जब्त हुई थी।

लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के नारे ने रंग दिखाया

इस आम चुनाव में कांग्रेस जीती जरूर लेकिन चुनाव के नतीजों में भविष्य के झंझावात की एक आहट सी छिपी हुई थी। कांग्रेस का वर्चस्व टूटने का संकेत मिल गया था। नेहरू के इंदिरा गांधी कांग्रेस के सूबेदारों और बुजुर्ग नेताओं की आंखों की किरकिरी बन गई थी और उन्होंने इंदिरा के नेतृत्व को चुनौती देने का मन बना लिया था। 1967 में लोकसभा के साथ ही विधानसभाओं के भी चुनाव हुए थे। मतदाताओं ने परिपक्वता का परिचय देते हुए देश को अनिश्चित भविष्य की ओर धकेले जाने से बचाने के लिए जहां केंद्र में सत्ता कांग्रेस को ही सौंपी वहीं विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में कांग्रेस को हरा कर सबक सिखाया। जनादेश के जरिए कांग्रेस कई राज्यों में सत्ता से बेदखल जरूर हो गई लेकिन कोई और पार्टी भी इतनी सीटें नहीं जीत सकी कि अपने दम पर सरकार बना सके। ऐसी स्थिति में डॉ. लोहिया ने तात्कालिक रणनीति के दौर पर गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया। लोहिया के इस नारे ने खूब रंग दिखाया। देश के नौ प्रमुख राज्यों मे पहली बार गैर-कांग्रेसी संविद यानी संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं। कांग्रेस से अलग होकर उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) बनाया तो ओडिशा में बीजू पटनायक ने बगावत कर उत्कल कांग्रेस का गठन कर लिया। पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी ने बांग्ला कांग्रेस बनाई। समाजवादियों और जनसंघ के साथ मिलकर बिहार में भी गैर-कांग्रेसी खेमे के नायक पुराने कांग्रेसी महामाया प्रसाद बन गए थे। इस सबसे यह भी साबित हुआ कि अलग-अलग विचारधाराओं की वकालत करने वाले गैर-कांग्रेसी दलों ने शायद अपनी विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिकता को अहमियत दी। इसीलिए कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनसंघी और स्वतंत्र पार्टी वाले सबके सब एक मंच पर आकर गैर-कांग्रेसी संविद सरकारें बनाने को तैयार हुए। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर में उसके तत्कालीन संपादक के आर मलकानी ने लिखा था कि संविद सरकारें कांग्रेस की सरकारों से अच्छी साबित होंगी क्योंकि हम कम्युनिस्टों को राष्ट्रवाद सिखा देंगे और उनसे हम समाजवाद और समानता का दर्शन सीख लेंगे।

इंदिरा, लोहिया, जॉर्ज, रवि राय पहुंचे लोकसभा में

1967 का चुनाव जीतकर कई दिग्गज पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे। इंदिरा गांधी, जॉर्ज फर्नांडीस, रवि राय, नीलम संजीव रेड्डी, युवा तुर्क रामधन आदि इसी श्रेणी में शामिल थे। इंदिरा गांधी रायबरेली से जीतीं, जहां से पहले उनके पति फिरोज गांधी जीतते थे। प्रखर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया 1963 में फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीते थे लेकिन 1967 में ही वे पहली बार आम चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उत्तरप्रदेश की कन्नौज सीट से मात्र 471 मतों से उनकी जीत हुई थी। जनसंघ के नेता बलराज मधोक दक्षिण दिल्ली से चुनाव जीते। जॉर्ज फर्नांडीस सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंबई दक्षिण से कांग्रेस के दिग्गज एसके पाटिल को हराकर जीते। ओडिशा की पुरी सीट पर सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर ही रवि राय भी जीते। बिहार के मधेपुरा से इसी पार्टी के टिकट पर बीपी मंडल भी लोकसभा में पहुंचे, जो बाद में बहुचर्चित मंडल आयोग अध्यक्ष बने।

आंध्र की हिंदुपुर सीट से कांग्रेस के टिकट पर नीलम संजीव रेड्डी जीते जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने। लालबहादुर शास्त्री की इलाहाबाद सीट से उनके पुत्र हरिकृष्ण शास्त्री जीते। बलरामपुर से एक बार फिर जनसंघ के टिकट पर अटल बिहारी वाजपेयी की जीत हुई। मध्य प्रदेश की गुना सीट से एक बार फिर विजयाराजे सिंधिया जीतीं। इस बार उन्होंने कांग्रेस छोड़कर स्वतंत्र पार्टी का दामन थाम लिया था। वीकेआरवी राव, मोरारजी देसाई, श्रीपाद अमृत डांगे, एके गोपालन, इंद्रजीत गुप्ता, केसी पंत, विद्याचरण शुक्ला और भागवत झा आजाद भी फिर से लोकसभा पहुंचे थे। महाराष्ट्र की सतारा सीट से यशवंतराव चव्हाण जीते। इसी चुनाव में समाजवादी नेता एसएम जोशी और कांग्रेस नेता वीडी देशमुख भी लोकसभा पहुंचने वालों में शामिल थे।

आपातकाल के दौरान किस्सा कुर्सी का प्रकरण से चर्चित हुए अमृत नाहटा राजस्थान की बाडमेर सीट से जीते थे। बाबू जगजीवन राम बिहार की सासाराम सीट से लगातार चौथी बार जीतने में कामयाब रहे। बाद में केरल के मुख्यमंत्री बने माकपा नेता ईके नयनार पालघाट सीट से चुनाव जीते थे। इंदौर से प्रकाशचंद्र सेठी चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे। उन्होंने इस सीट से 1962 में जीतने वाले कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड होमी एफ दाजी को हराया। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे सूरजभान भी जनसंघ के टिकट पर अंबाला से जीतकर 1967 में पहली बार सांसद बने।

कृपलानी, जनेश्वर और किशन पटनायक हारे, वाजपेयी जीते

भारत-चीन युद्ध में पराजय का सबसे ज्यादा खामियाजा तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्णमेनन को भुगतना पड़ा था। उन्हें न सिर्फ मंत्री पद से हटाया गया बल्कि कांग्रेस से बाहर कर दिया गया था। किसी जमाने मे पं. नेहरू की कोटरी के खास सदस्य रहे कृष्णमेनन ने उत्तर-पूर्व मुंबई संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ा। उन्हें कांग्रेस के एमजी बर्वे ने बुरी तरह पराजित किया। जेबी कृपलानी रायपुर से लड़े और कांग्रेस के केएल गुप्ता से हारे लेकिन उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस के टिकट पर गोंडा से जीत गईं। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि अंग्रेजी के प्राध्यापक और हिंदी के जाने माने कवि विजयदेव नारायण साही भी सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर 1967 का चुनाव मिर्जापुर से लड़े थे, लेकिन उन्हें जनसंघ के वी. नारायण के मुकाबले हार का सामना करना पड़ा था। 1962 में लोकसभा पहुंचने वाले समाजवादी नेता किशन पटनायक यह चुनाव हार गए थे। उन्हें ओडिशा की संबलपुर सीट से कांग्रेस के एस. सुधाकर ने हराया था। 1962 में अटल बिहारी वाजपेयी को हराने वाली सुभद्रा जोशी इस बार उनसे मात खा गईं और उनकी सीट बलरामपुर से एक बार फिर वाजपेयी लोकसभा पहुंचे। डुमरियागंज संसदीय क्षेत्र से नेहरू मंत्रिमंडल में रहे केशवदेव मालवीय भी चुनाव हार गए थे। छोटे लोहिया के नाम से मशहूर रहे जनेश्वर मिश्र भी इस चुनाव में फूलपुर से हारे थे। यह सीट पं. नेहरू की थी। 1964 में उनकी मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित चुनाव जीती थीं। विजयलक्ष्मी 1967 में भी यहां से चुनाव लड़ीं और जनेश्वर मिश्र को हराकर लोकसभा पहुंचीं। भाकपा के टिकट पर लगातार तीन बार लोकसभा के लिए चुनी रेणु चक्रवर्ती की किस्मत इस चुनाव में उनसे रूठ गईं। कम्युनिस्ट पार्टी में हुए विभाजन के चलते उनके खिलाफ माकपा के मोहम्मद इस्माइल चुनाव लड़े और रेणु चक्रवर्ती को हराकर लोकसभा में पहुंच गए। जोधपुर से लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भी इस बार हार गए थे। इस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लड़े सिंघवी को कांग्रेस के एनके सांघी ने हराया।

कांग्रेस टूटी, सरकार अल्पमत में आई

इन चुनावों के दो साल बाद ही 1969 में कांग्रेस में पहली बार एक बड़ा विभाजन हुआ। 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इस विभाजन की आधार भूमि तैयार कर दी थी। मोरारजी भाई देसाई, के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, सदोबा पाटिल, नीलम संजीव रेड्डी जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने बगावत का झंडा बुलंद किया और महज दो साल में ही इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई। इसके बाद के घटनाक्रम और इंदिरा गांधी के करिश्मे की चर्चा 1971 के आम चुनाव की कहानी में।


क्रमश: