लोहियावादी-समाजवाद का जातिवादी आदर्श : वर्धा विवि के आचार्य के नाम एक ललित-पत्र

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यह पत्र लेखक ने महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय, वर्धा के प्रो वाइस चांसलर रहे एक लोहियावादी-समाजवादी प्रोफेसर को लिखा था। पत्र में उल्लिखित घटनाएं सत्‍य हैं। वर्धा विवि के संदर्भ में लिखा गया यह पत्र आज प्रत्‍येक विश्‍वविद्यालय की सच्‍चाई बन चुका है, लिहाजा इसे पढ़ा जाना चाहिए। लेखक का कहना है कि पत्र में उन्‍होंने बिम्‍ब और प्रतीकों का सहारा लिया है और यह ललित शैली का पत्र है। यह शैली उनकी अपनी है और मजबूरी भी। (संपादक)

आदरणीय डॉ साहब
नमस्कार

यह पत्र इसलिए लिखना पड़ रहा है कि आपने एसएमएस द्वारा कई लोगों से यह बात साझा की है कि ‘संस्था और सबके भले के लिए अपनी सीमा भर कोशिश की और विवि से (आप) संतोषपूर्वक घर लौट रहे हैं’। आपने यह एसएमएस उनसे भी साझा किया जिसके खिलाफ आपने स्वयं साजिश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। मैंने जब आपका एसएमएस पढ़ा तो मफ़लर/गमछा डाले सूर्योदय होने के बाद आपके टहलते-खिलखिलाते ‘सुमधुर-यात्रा’ की यादें ताजा हो गईं। संस्था के प्रति आपकी ईमानदारी का तो मैं भी कायल हूँ। संस्था की भलाई के लिए ही आपने विवि के खर्च पर सात समुद्र पार मारीशस-यात्रा का खतरा मोल लिया था। गोजर-बिच्छू,साँप-नेवला के लजीज भोज्य-पदार्थ के आग्रही देश चीन की भी यात्रा आपने की। वरना वहाँ कौन जाना चाहेगा? लेकिन खतरा मोल लेकर भी विवि हित में आपने यह सब किया। आपकी यात्रा के पूर्व में तो कुछ लोगों ने मस्ती के लिए यात्रा की थी पर आपकी यात्रा तो संस्था और राष्ट्र-भक्ति से भरपूर थी।

जहां तक मुझे याद आ रहा है, विवि में आगमन के कुछ ही दिनों बाद अपने छ्ठी इंद्रिय के कमाल से आपने यह जान लिया था कि एक ‘जाति विशेष’ के लोग इस विवि को ‘डिस्टर्ब’ करना चाहते हैं। आपने अपनी ही जाति के एक अध्यापक से यह बात साझा की थी (जबकि मगहर से आप त्याग-तपस्या करने आये थे) वो बिचारे ठहरे ‘सेकुलर’ जातिवादी। उनके पेट का गैस उबाल मारने लगा और उन्होने तुरंत मुझ जैसे जातिवादी व्यक्ति से इस बात की चर्चा की। उस दिन वे तनाव में थे। मैंने उनसे कहा-‘महाराज! यह तो बड़ी अच्छी बात कही है उन्होंने। डॉ साहब तो मगहर से यहाँ इस विवि को ‘शांति’ का ही पाठ पढ़ाने आए हैं। साहित्य की तो यही सही परिभाषा है। मैंने अपने मित्र से कहा कि “महाराज ,वहाँ उन्होंने जाति विशेष के ‘चरणों’ में बैठकर वर्षों तक अपने को ‘जातीय लौह-कवच’ में संस्कारित किया है, तभी तो वे शिक्षाविद बनने के लिए एक तरफ ‘व्योम’ मिश्र का  शिष्यत्व स्वीकार किया तो दूसरी तरफ राजनीति के क्षेत्र में ‘ज्ञानेश्वर’ मिश्र की चरण-वंदना की। दीनदयाल विवि के ‘शंकर’ ने अपने कंधे से राजनीति का झोला उतारकर इनके कंधे पर रखा था। ये तो बस अपने आचरण में उसे उतार रहे हैं”।

मैंने उनसे कहा कि आप परेशान न हों। वैसे भी डॉ साहब धुरंधरों के बीच रहते हुए जातियों के गुण दोष को ठीक तरीके से समझते होंगे तभी ऐसा कहा होगा। डॉ साहब! आप तो साहित्य के आचार्य हैं! (हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि आप आचार्य नहीं हैं। वे मूर्ख हैं। ब्राह्मण तो पैदाइशी आचार्य होता है। यूजीसी का नियम ब्राह्मणों पर लागू ही नहीं होता है) आप तो अमित-अनंत ज्ञान में डुबकी के बाद जातीय मणि-रत्न को लेकर ही रामगढ-ताल से निकले हैं। फलस्वरूप अवसर मिलते ही आपने गुरुदक्षिणा स्वरूप ‘अ’ प्रमेय को ‘इतिसिद्धम’ तक पहुंचा दिया।

डॉ साहब! आपको मंच से सुनना लोगों को कर्णप्रिय (?) लगता था। हमारे एक जानने वाले तो आपके भाषणों पर फिदा ही रहते थे। आपके मंच पर चढ़ते ही वे कहते थे कि अब देखो! इस विषय पर गुरुजी चार घंटा बोलेंगे। यद्यपि कि एक बार भी आपको चार घंटा बोलने का अवसर नहीं मिल पाया। फिर भी किस्सागोई और स्वयं हंसने-मुस्कराने की कला यह बता देती थी कि वक्त मिलता तो आप अवश्य ही शिष्य की बात को सच कर देते। वर्धा में आपका जातिगत राजनीति  का ‘अनुभव’ भी गाँव के ‘चौधरी’ के रूप में विकसित हुआ। आपने अपने इलाके के जातीय-विद्वानों की विवि में झड़ी लगा दी। ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ की अनुगूँज से हिन्दी विवि भी वाह-वाह कर उठा। आपने ‘शंकर’ पर जरा सी ‘कृपा’ क्या की, कि तुरंत कोलकाता से आपको बुलावा भी आया (वरना किसी जमाने  में ‘अहोम’ शासकों के राज्य में ‘शोध-जजमानी’ के लिए आप वर्षों तक छटपटाते रहे हैं)।

सर, आशुतोष मुखर्जी के शहर में आपने जब यह रहस्योद्घाटन किया कि ‘अंधेरा इतना पसरा हुआ है कि सच इसमें कहीं खो गया है’, तब वहाँ मुझे मुक्तिबोध का ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ अपनी संपूर्णता में उपस्थित होता दिखा। विवि की कार्यपरिषद की बैठक में (जिसके आप भी मानद सदस्य थे) जब आपने अपनी जाति के एक नवनियुक्त सदस्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होते हुए देखा तो झूठ की झोली आपने वहीं पसार दी और कहा कि ‘नहीं! यह बात गलत है। वे इस विवि में नहीं पढ़ाते हैं’। आपके इस आप्तवचन के बाद तो कार्यपरिषद के कई सदस्य चाहकर भी ‘सच’ को बोल नहीं पाये क्योंकि ‘झूठ’ ने अपना पाँव इतना लंबा कर लिया था कि ‘सच’ ने वहाँ से अपनी जान बचाकर भागने में ही भलाई समझी। ‘सच’ रूआँसे मन से वहाँ से निकल भागा। मैंने स्वयं अपनी आँखों से उसे विद्यापीठ से रोते हुए निकलते देखा। एक बार मन हुआ कि उसे पुकारूँ लेकिन गला ही रुद्ध हो गया मेरा। आखिर मैं भी तो जातीय-दंश से पीड़ित ही हूँ न!

अब देखिये न! जब से आप विवि में आए थे, आपकी जाति-विशेष ने इतनी खूबसूरती से अपना पाँव पसार लिया कि किसी को पता ही नहीं चला। त्वरित टिप्पणी और तीसरी आँख लेकर पैदा हुए सोशल मीडिया तक को आपने भनक नहीं लगने दी। ‘कबीर’ के मगहर से जिस जाति की ‘चदरिया’ को लेकर आप वहाँ से आये थे उसे आपने यहाँ ‘ज्यों का त्यों’ धर दिया। ऊपर नभ-मण्डल में देवताओं ने भी साधु-साधु कहकर पुष्प वर्षा की। वर्धा का पंचटीला जातीय फूलों की गंध से मंह-मंह सुगंधित हो उठा। हालांकि महात्मा गांधी को विवि के ‘गांधी हिल्स’ से अपनी लकुटिया के साथ चुपके से निकलते हुए मैंने देख लिया था। मैंने उन्हें आवाज भी दिया। पर उन्होंने अपनी उसी पुराने अंदाज में होठों पर तर्जनी रखकर चुप रहने का इशारा किया और आगे बढ़ गये ।

लोग कहते हैं कि गीता में जन्म से नहीं कर्म से जाति/वर्ण के निर्धारण होने की बात कही गयी है लेकिन असली व्याख्या आपने अपने पुरुषार्थ से दिया कि जाति/वर्ण का निर्धारण कर्म नहीं, जाति ही होती है। मगहर से लेकर सेवाग्राम तक की बेधड़क यात्रा से आपने इसे सिद्ध भी कर दिया है। अब कुछ लोग इसके खिलाफ पिपीहरी बजाएँ तो बजाते रहें। वर्धा में काम करते हुए भी आपकी ‘अर्जुन-आँखें’ मगहर विवि की तरफ ही लगी रही। क्योंकि वहाँ भी बीज(क) को बोना था। अध्यक्ष पद पर ज्योही एक जाति विशेष के बैठने की बारी आयी आपने आनन-फानन(?) में लौटने का फैसला ले लिया । मगहर विवि में होने वाली नियुक्तियों में आपके रहते दूसरे लोग हाथ बँटाते, यह कैसे हो सकता है? आपने दुखी(?) मन से जाने का फैसला ले लिया । मजे की बात यह कि कई लोगों से आप अलग-अलग मिले और सभी से आपने  यह कहा कि ‘मैं जा रहा हूँ । पर यह बात मैंने सिर्फ आपसे ही कही है’। सभी अपना कालर उंचा कर रहे थे कि वे ही सबसे करीबी हैं आपके। लेकिन सच्चाई तो सिर्फ आप और हम जानते हैं। है न! भला अपनी जाति के बाहर किसी को करीबी समझा जाता है? जाति ही क्यों? अवसर पड़ने पर अपनी जाति को भी पटकनी देने में आपकी कोई सानी नहीं है।

अब देखिये न! कुछ कर्मचारियों के मुद्दे को अंजाम तक पहुंचाने में कई लोगों ने जमकर रगड घिस्स किया था। यह तो हम  सब जानते हैं कि विवि के किसी भी नीति-निर्णय पर अंतिम मुहर कुलगुरु ही लगाते है। पर एक ब्राह्मण मनोवैज्ञानिक के नीचे से इस तरीके से आपने दरी खींच ली कि अगले को पता नहीं चला और सारा श्रेय स्वयं लेकर मगहर को चले गये। वरना सम कुलगुरु तो कुलगुरु की छायामात्र ही होता है। विवि के एक भव्य भवन के निचले तल के बरामदे में आपने एक अध्यापक से कितनी व्यावहारिक बात कही थी निजी स्वार्थ को लेकर। जब आपने यह कहा कि ये (कुलगुरु) तो अपना झोला उठाएंगे और कहीं निकल लेंगे, पर मेरा क्या होगा? मेरी तो आंख  खुली की खुली  ही रह गई। उस दिन हमने आपसे जाना कि आप तो विवि और कुलगुरु के प्रति कभी ईमानदार ही नहीं थे। यही तो हमारी जातिवादी राजनीति की खासियत है। मेरा भी सीना ‘छप्पन  इंच’  का हो  गया।

कबीर दास ने जात-पांत के खिलाफ भाषण चाहे जितना दिये हों, उन्हें भी हमारे पूर्वजों ने मौका मिलते ही विधवा-ब्राहमणी के गर्भ का ही सिद्ध कर दिया। प्राइमरी से लेकर विवि तक यही गाथा पढ़ाई जा रही है। दूसरे किसी जाति के गर्भ से पैदा हुए होते तो न जाने किन-2 विशेषणों से नवाजे जाते। भोजपुरी क्षेत्र का होने के नाते आप खूब समझ रहे होंगे। परिणामस्वरूप आज तक पता नहीं कितने अपने जाति के लोग ‘कबीर-लेड़ी’ से बाबा रामदेव की तरह चूरन-पंजीरी बाँट रहे हैं और दुकान चल भी रही है। इधर उत्तम अग्रवाल टाइप कुछ लोग कबीर को ‘वैश्य’ बनाने की जुगत में लगे हुए हैं। पर सफल नहीं हो पाएंगे। अब दो हजारी द्विवेदी ने जिस पर अपना कलम चला दी हो उस पर बनिए-बक्काल क्या कलम चलाएँगे?

असल बात जो यह है कि ‘सारे भारत में नैतिकता और सच्चाई आज जाति सापेक्ष हो गई है’, बहुत कम लोग ही समझ आते हैं। इस देश के अंदर,एक विशिष्ट वर्ग के अंदर ‘उदात्त व्यक्तित्व’ की प्रतिष्ठा हुई है और वे व्यक्तित्व बहुआयामी हैं। इसमें अरुंधति राय जैसी कुछ अराजक-प्रबुद्ध भी हैं जो इस बात को समझते हैं। उसने कहीं कहा है कि ‘संघ भी राष्ट्रवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद ही करता है’। दरअसल ये वो सिरफिरे हैं जो भारत की तासीर को नहीं समझते हैं और इस तरह का वक्तव्य देते रहते हैं। ढाई हजार वर्षों से इस तरह के विरोध के हमलोग आदी हो चुके हैं। क्या कर लिया लोगों ने विरोध करके? आज भी अपने गाँव में जो सूप-सूपेली बीनने वाला ‘डोम’ है, वह दक्षिण दिशा के दुर्गंधयुक्त वातावरण में खौरहे कुत्ते और सूअरों के बीच ही अपना जीवन–यापन कर रहा है। और हम लोग देखते ही देखते 21वीं सदी में‘मंगल’ पर जाने की तैयारी कर चुके हैं । वे ही क्यों? अन्य जातियाँ भी मालिक और बाबा कहकर आशीर्वाद लेने तो आती ही हैं। बड़ी खूबसूरती से हमारे पूर्वजों ने ‘इस जन्म में सेवा करो अगले जन्म में मेवा मिलेगा’ का जन्म से लेकर मरण तक ऐसा लौह-चक्रव्यूह बनाया है कि ‘फ्रायड-युंग-एडलर’ की तिकड़ी भी इसे नहीं तोड़ पा रही है।

जातीय महीरुह कितनी महत्वपूर्ण होते हैं इसे आपसे बेहतर कौन समझ सकता है? साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार के चयनकर्ताओं में आप भी एक सदस्य हैं। तिवारी जो आपके वरिष्ठ सहयोगी रहे हैं, यदि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष न रहते तो आप कैसे वहाँ रहते? हिन्दी विवि में भी आगमन तो इसी महीरूहों के ही शाखा-सूत्रों के ही माध्यम से हुआ था। आपके ही शहर के एक बड़े विद्वान ‘त्रिपाठीजी’ ने एक दिन दूरभाष पर मुझसे बड़ी ही मासूमियत से पूछा कि ‘डॉ साहब विवि क्यो छोड़कर चले गए? मैंने उनसे कहा कि वे संभवत: अध्यक्ष बनने के लिए गए हैं। वे इससे संतुष्ट नहीं हुए। हालांकि सच्चाई उनको पता रही होगी। पर वे मुझसे कुछ और जानना चाह रहे होंगे। पर अपन भी जातीय खेल का पुराना खिलाड़ी है। ‘गूगली’ को ‘गली’ से निकाल दिया।

आपने एक और महत्वपूर्ण कार्य इस विवि में किया है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। वह है मित्रता की परिभाषा। ज्ञान के प्रमुख स्रोत तो ब्राह्मण ही रहे हैं। मित्रता का जो नया पैमाना आपने बनाया है उस पर हम सब सौ-सौ बार फिदा हैं। हों भी क्यों न? सिंह एक ही साथ तिवारी- शुक्ला और राय दोनों के मित्र कैसे हो सकते हैं? आपके इस मासूमियत भरे सवाल और उसके पीछे के तर्क पर ‘विश्वामित्र की संतान’ के होश ही उड़ गये। अब तो आपके इस ‘कृष्ण’ ज्ञान पर ‘शिरीष’ के फूल भी उग आए हैं। विवि में आकर आपने जातिवाद का जो नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा है, वह सचमुच काबिले तारीफ है। भारत के बारे में डॉ लोहिया ने एक बार कहा था- ‘भारत’ एक ‘आइडिया है,एक‘शिवोहम’ जैसी आइडिया’। आप तो दुनिया की नजर में  लोहियावादी ही हैं। लोहिया के इस विचार को भी किस तरह से जाति की तरफ मोड़ा जा सकता है इसकी कला हम लोगों ने आपसे सीखी है। अब कोई ‘माई का लाल’ ऐसा नहीं है जिसे हम लोग आपके ज्ञान-सहयोग से धूल न चटा दें। वर्धा प्रवास के दौरान आपके द्वारा लोहियावादी-समाजवादी जातिवाद के इनोवेटिव ज्ञान से हम सब बहुत लाभान्वित हुए ,इसके लिए आपका बार-2 आभार।

खैर! पत्र लंबा हो गया। त्रुटि को सुधार कर पढ़िएगा। आपके जाने के बाद मन बड़ा दुखी-दुखी सा रहता है। यहां की तो दीमकें भी फूट-फूट कर रोईं थी। हम सबके मन में एक ही सवाल कौंधता है– हाय!अब हम लोगों का कौन मार्गदर्शन करेगा? पता नहीं किस बेवकूफ ने लिखा है-अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे /तोड़ने ही होंगे मठ और  गढ़ सब… खतरा तो हम लोग आपके साथ मिलकर उठाते थे। खैर! आप अपने मिशन में वहाँ भी सफल हों। यही मेरी शुभकामना है। कभी अवसर मिले तो जरूर इधर आइएगा । हम सबको आपका इंतजार रहेगा।

आपका अपना ही
चिन्मय भारत


लेखक अध्यापन से जुडे हैं. गांधी अध्ययन में विशेष रुचि. गांधी चिंतन के विभिन्न पहलुओं पर तीन-चार पुस्तकें प्रकाशित. समसामयिक विषयों पर यदा-कदा ललित शैली में लेखन. मूलत: गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं.


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