‘बमबारी’ के साल भर बाद जेएनयू : हम ग़ुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे !

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
कैंपस Published On :


9 फरवरी के साल भर बाद ‘‘दरार के गढ़’’ जेएनयू का हाल-

 

ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई …

जोड़ने की बात करने वालों पर, तोड़ने का इल्जाम नालिस करके मारने, पीटने, गिरफ़्तार करने, अपमानित करने का जो सरकारी सिलसिला देशभर में बढ़ा चला आ रहा था, उस अतीतमुखी रथ को जेएनयू के विद्यार्थियों ने जिस तरह लगाम दिया – उसका मूल्यांकन आज सालभर बाद किया जाए तो कई दिलचस्प व चुनौतीपूर्ण बातें साफ साफ देखी जा सकती हैं।

जेएनयू के लिए 9 फरवरी ज्ञान बोध शोध की एक सु-ख्यात संस्था को बंद करने की शुरुआत थी। सत्ताधारी प्रतिष्ठान की ओर से वह कोशिश आज भी जारी है। आजकल ‘शटडाउन जेएनयू’ के अगले षड्यंत्र पूरे साज़-ओ-सामान के साथ सक्रिय हैं। इनके मुक़ाबिल विद्यार्थियों का मोर्चा हस्बेमामूल आज भी डटा हुआ है।

मोदी सरकार के सत्ता में आने के साल भर बाद आरएसएस के मुखपत्र ‘पाँचजन्य’ ने नवंबर 2015 में अपनी एक कवर स्टोरी में जेएनयू को ‘‘दरार का गढ़’’ बताते हुए लिखा कि भारत की अखण्डता व देशभक्ति के लिए यह विश्वविद्यालय सबसे बड़ा खतरा है। खतरा इसलिए कि यहाँ दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के सवालों पर न केवल बात-बहस होती है बल्कि यहां के पाठ्यक्रम में इन तबकों की ऐतिहासिक सामाजिक दशा-दुर्दशा पर केन्द्रित कोर्स स्वीकृत हैं, जहां सेमिनार हो रहे हैं, परचे पढ़े-सुने जा रहे हैं, हर साल एमफिल पीएचडी की-कराई जा रही है। वंचितों के अधिकार की, समानता की, बराबरी की, आज़ादी की बात उठती है तो ‘एक भारत’ को चोट लगती है, ‘समर्थ भारत’ की पोल खुलती है यानी ‘अखण्ड भारत’ की खोट दिखने लगती है। भूख भय का प्रश्न उठता है, भेदभाव से पोषित सिस्टम को समूल बदलने की बात की जाती है तो हिंसा हत्या पर टिकी सत्ताकामी देशभक्ति के दो-मुँहेपन पर बाएं बाजू के गगनभेदी मुक्के पड़ते हैं। सबको रोजगार देने की मांग की जाती है तो अ-समानता के ‘श्रेष्ठ’ लाभार्थी तिलमिलाने लगते हैं। यहां तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी के शहीदों को रेड सैल्यूट पेश किया जाता है तो चौड़ी छाती वाले ‘महान’ भारत की आंतरिक सुरक्षा का नाड़ा ढीला हो जाता है और भगत सिंह का नाम सुनते ही ‘‘सामाजिक समरसता’’ की साम्प्रदायिक हज़मियत खजमजा उठती है। इसीलिए जेएनयू ‘‘दरार का गढ़’’ है क्योंकि यहां ‘‘राष्ट्र को तोड़ने’’ की नित नई कसमें बुनी जा रही हैं, क्योंकि यहां ‘‘भारत की बर्बादी’’ के लाल लाल सपने देखे जा रहे हैं!

तो जोड़ने की बात करने वालों को तोड़ने का मौका आखि़रकार निकल आया। यह पिछले साल नौ फरवरी की बात है। पार्लियामेंट अटैक केस में इसी दिन अफजल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया था। अफजल को राष्ट्र की ‘‘सामूहिक आत्मा की शाँति के लिए’’ फांसी दी गई – यह सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में लिखा है – इस फैसले को पढ़कर आप समझ सकते हैं कि उस ‘‘आतंकवादी’’ का गुनाह क्या था और हमले की, हमले में अफजल के शरीक होने की सच्चाई क्या है – कि आतंकवाद का साम्राज्यवादी बिजनेस बढ़ाने के लिए आइकॉन कैसे तैयार किये जाते हैं! अक्षरधाम पर 2001 में जो हमला हुआ था, वह सिरे से फ़र्ज़ी स्टोरी थी – जिसमें 25 लोग मारे गए थे और 77 लोग घायल हो गए थे। कहने का मतलब यह कि हमलों, विस्फोटों व फ़र्जी एनकाउंटरों के जरिये प्रभु वर्ग जो राजनीति कर रहा है, उसे आँख खोलकर देखने की ज़रूरत है। मीडिया व सिविल सोसायटी की भूमिका देखते समय यह ध्यान रहे कि सब जगह साजिश नहीं है – उधर भी कुछ ‘‘ईमानदार ईडियट’’ हैं जो अखण्डता व देशभक्ति के नाम सुनते ही बऊरा जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे इधर ‘‘फोड़म के बौड़म’’ हैं।

बहरहाल, इस मौक़े पर कुछ विद्यार्थियों ने कैपिटल पनिशमेंट के विरोध में साबरमती ढाबे पर एक मीटिंग आहूत की – जहां देशविरोधी नारेबाजी का आरोप मढ़कर जेएनयूएसयू प्रेसिडेंट समेत कुछ विद्यार्थियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर ‘देशभक्त’ मीडिया के सौजन्य से शहर से गांव तक देशभर में भारी तनाव खड़ा कर दिया गया। (तथाकथित नारेबाजों के खि़लाफ़ चार्जशीट दायर करने की तैयारी दिल्ली पुलिस सालभर बाद भी पूरी नहीं कर सकी है।) इसके पहले हैदराबाद में ‘‘अंबेडकर की बात’’ करने पर ‘‘जातिवादी’’ रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का संघी षड्यंत्र रचा जा चुका था। पुणे के फ़िल्म संस्थान में ‘‘खुली खिड़की’’ छाप एक्टर को निदेशक बनाए जाने के विरोध में छात्रों का आंदोलन जारी था। चेन्नई, पुडुचेरी, पटना, इलाहाबाद समेत देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों में संघी सरकारी दखलंदाजी के खि़लाफ़ कलह कलुष बढ़ता ही जा रहा था
कि माँ भारती का होनहार स्वयंसेवक, ‘‘देशद्रोहियों’’ को कड़ा सबक़ सिखाने की ‘पवित्र’ मंशा लेकर ‘‘दरार के गढ़’’ में घुस गया। बहाना देशविरोधी नारेबाजी का था, इरादा वामपंथ पर निशानेबाजी का था। मकसद जेएनयू को नष्ट करना था। अक्टूबर में नजीब अहमद की गुमशुदगी को इसी मकसद से जोड़कर देखना चाहिए। पोस्टर लगाने से लेकर पब्लिक मीटिंग आयोजित करने तक तरह तरह की प्रशासनिक रोक-छेक, एसी मीटिंग के बाहर नारेबाजी कर रहे विद्यार्थियों का निलंबन, वार्डन से चेयरपर्सन तक की नियुक्ति में किसिम किसिम की जाँच पड़ताल ‘‘शट डाउन जेएनयू परियोजना’’ के ही प्रयास हैं। एकैडमिक काउंसिल में कोई एजेंडा रखने, उस पर बातचीत होने और फिर बहुमत से पास कर उसे लागू करने के लोकतांत्रिक उसूलों को ध्वस्त करके, मनमाने ढंग से यूजीसी नोटिफिकेशन थोपकर शोध बोध को भ्रष्ट करने, रिजर्वेशन डिप्रिवेशन की व्यवस्था को निरर्थक बनाकर वंचित समुदाय के विद्यार्थियों को जेएनयू से बाहर करने और उन्हें यहां तक पहँचने ही न देने की राजनैतिक मंशा एकदम साफ़ है।

छात्रों की गिरफ्तारी के बाद जेएनयू में जो अभूतपूर्व विस्फोट हुआ, उसके दस्तावेज़ इन्टरनेट पर छाये पड़े हैं। यूँ समझ लीजिए कि ‘‘शटडाउन जेएनयू’’ की धमकी सुनकर यहां का छुआ-छिरका दुनियाभर में जो जहां जिस हाल में था, उसने वहीं से अपना डंक सीधा कर दिया। मोदी के पतन का ऐलान तो बिहार की जनता ने किया मगर उसका निर्णायक शुभारंभ जेएनयू से ही हो गया था। आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की, मोदी सरकार की ऐसी शानदार चम्पी आयोजित हुई कि जेएनयू के पुराने आंदोलनकारी तक हुलस गए। अध्यापकगण मोर्चे पर आ जुटे तो हिन्दूवादी, अस्मितवादी, अर्द्ध-सामंती राष्ट्रवाद के परखचे उड़ गए। जग्गू भाई (वीसी) नया नया आया ही था कि चैबीसों घंटे की अरारोर नारेबाजी सुनते सुनते सनकते सनकते बचा। इतना बड़ा बेमिसाल ‘‘पदेन पैदलाध्यक्ष’’ अवतारवाद के अंधकारमय मूल्यतंत्र में ही पनप सकता है। देवी देवता पूजा पाठ की मदद के बिना इतना ठोस अक्ल-बंद तैयार नहीं हो सकता ! वह सचमुच जहालत का नैनो-टेक्नोलॉजिस्ट है! अप्पा राव (एचसीयू) और गिरीश चन्द्र त्रिपाठी (बीएचयू) के साथ जग्गू को रखकर देखिए तो आरएसएस के ‘‘ज्ञान-शील-एकता’’ का ‘‘56 इंच’’ चौड़ा मैनहोल ‘मन की बात’ विसर्जित करने लग जाएगा। इस प्रजाति के दो-पाये शहर से गाँव तक सर्वत्र पाये जा रहे हैं। भारत की संप्रभुता के विनिवेश की पागुर कर रहे टीका-चुटियाधारी इन गिरहकटों का ‘उद्धार’ करने के लिए ही विष्णु ने लम्पटाधिराज हाफपैंट-कुल-भूषण श्रीश्री 1008 नरेन्द्रदास दामोदरदास मोदी की शक्ल में आधी बाँह का झुलवा पहनकर अवतार ले लिया है। सामंतवाद ने अपने लाभार्थियों के अन्तःकरण को इस क़दर सिकोड़ दिया है कि यहां
नफरत, विकृति, विभेद, विनाश व विनिवेश के मध्यकालीन घुग्घू ही तड़फड़ा फड़फड़ा सकते हैं। ये सब बेशऊर, बदतमीज, बुद्धिविरोधी होने से बढ़कर इस गलीज़ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के संचित पाप हैं जिन्हें अगर पीट-पटककर साफ़ न किया गया तो मज़दूरों मेहनतकशों की आनेवाली नस्लें फिर से बंधुआगिरी भुगतेंगी।

जेएनयू के लिए 9 फरवरी की परिघटना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रवाद विषयक बहुश्रुत बहसों ने छात्र समुदाय के एक हिस्से को इस क़दर व्याकुल कर दिया कि उन्हें लाल-भगवा ‘‘एक’’ दिखने लगा। ये दलित-ओबीसी फोरम के लोग हैं। सिंगूर का ‘लाल’ और गुजरात का ‘भगवा’ इनके लेखे एक ही है। क्योंकि दोनों जगह सवर्ण नेतृत्व था। अस्मिता ही असल चीज़ है, यहां सबकुछ आइडेंटिटी से तय हो रहा है, तय होता रहा है – अस्मिता क्या है, अस्मिता की राजनीति क्या है, इस दिशा में ये लोग कुछ सोचना नहीं चाहते या इसके विस्तार में जाने को माक्र्सवादी बतंगड़ समझते हैं। ‘‘लाल’’ माने ब्राह्मण, ब्राह्मण माने दलित ओबीसी विरोधी – ‘‘लाल’’ में खुद ही कितने अंतर्विरोध हैं, इससे कोई मतलब नहीं। इनके ही नारे से अगर देखा जाए कि जब सभी विद्यार्थी हैं और एक ही संस्था में अध्ययनरत हैं तो एक को दूसरे की बनिस्बत कोई छूट या अतिरिक्त सुविधा
क्यों मिलना चाहिए? जबकि विद्यार्थी-विद्यार्थी का अंतर करते हुए ये लोग वंचित समुदाय के लिए अधिकार की, आरक्षण की, सामाजिक न्याय की मांग करते हैं, अंबेडकर की बात करते हैं। अब आप देख लीजिए कि इनका नारा, इनकी माँग के खि़लाफ़ खड़ा है लेकिन इस बात की इन्हें कोई भनक नहीं। अखण्डता / वननेस के तर्क से संचालित देशभक्त गण, आप जानते हैं कि दमन की हिंसा और प्रतिरोध की हिंसा में कोई अंतर नहीं करते। उनके लिए हिंसा-हिंसा एक है। इस ‘‘एक’’ की आड़ में वे प्रतिरोध की हिंसा को लांछित करते हैं और इस प्रकार दमन की हिंसा को वैध व जायज़ ठहराकर ‘‘एक भारत’’ को सही ठहराते हैं। इसी तर्ज़ पर दलित ओबीसी फोरम के लोग अखण्डता / वननेस की उसी ब्राह्मणवादी चेतना से संचालित हैं जिसके विरोध का झंडा लहराये फिर रहे हैं। ब्राह्मणवाद के कैरियर की विडंबना देखिए कि वह विपक्ष की राजनीति की जड़ खोदने में जुटा है और (अनजाने ही) अपने दुश्मन के हक़ में काम कर रहा है।

लंबे समय तक सामंतवाद का शिकार रहे समाज के बच्चों की यह भयानक दशा दर्शनीय है। और यह केवल बच्चों की बात नहीं है, जेएनयू के बाहर भी ऐसे लोग पाए जा रहे हैं – इनमें कई एक तो विद्वान हैं – जिन्हें 2017 में भी यह नहीं पता कि वे कौन हैं, किसका विरोध कर रहे हैं, किसके साथ हैं, उनकी लड़ाई किससे है! इसे आप ‘‘बाई डिवाइन या बाई डिफाल्ट’’ भी कह सकते हैं और इसके लिए इन्हें बेकसूर भी मान सकते हैं पर अपनी अस्मिता तक का सच देख सकने में असमर्थ रहकर, ब्राह्मण-ब्राह्मण की रटंत जोतकर ये ‘‘दृष्टि-बंधित’’ लोग अपनी ही माँग के खि़लाफ़, अपने ही समुदाय के खि़लाफ़ जो काम कर रहे हैं वह सचमुच ऐतिहासिक है। सामाजिक न्याय के खि़लाफ़ तो यह है ही। भेदभाव के सिस्टम को मजबूत करना तो यह है ही। अ-समानता के लाभार्थियों का घर भरना तो यह है ही। ऐतिहासिक इसलिए कि अपने ही नाश में ‘विकास’ करने की जो बेताबी है,
नौकरी पाकर पूँजीपतियों का घर भरने की जो बहादुरी है – इसी बहादुरी में एक तरफ़ लम्पटाधिराज का बहुमत बन रहा है, विपक्ष की राजनीति बिखर रही है। ये दोनों प्रक्रिया एक साथ चल रही है। अस्मिता की, अधिकार की, सामाजिक न्याय की राजनीति का यह प्रतिक्रियावादी चाल देख लीजिए। अंबेडकरवाद के नाम पर चल रही दलित विरोधी राजनीति देख लीजिए। इनके लिए अस्मिता ‘‘जाति जोड़ो’’ का औज़ार है – जो अंबेडकर के ‘‘जाति तोड़ो’’ के उलट तो है ही, साथ ही यह ‘‘बाँटो और राज करो’’ की राजनीति का शिकार है। लेकिन इन्हें अपने कहे-किये का कोई होश नहीं। यही ‘‘फोड़म चेतना’’ है। लाल-भगवा ‘‘एक’’ कहने में जो मज़ा आता है, उसका सोता कहां है, देख लीजिए। इनसे तमीज़ की अपेक्षा करेंगे तो ये आपको ही बद्तमीज़ ठहरा देंगे।

सत्य और शराफ़त की हर कोशिश को, हर अँखुवाहट को कुचल डालना ही मानो ‘‘फोड़म के बौड़म’ का कार्यभार है – लंबे समय तक सामंती शासन के पीड़ित रहे समाज के लोग ‘आज़ाद’ होकर ‘‘विकास’’ के जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसकी ये ‘‘उपलब्धियां’’ देखकर आप चिंता में पड़ जाएंगे। एक तरफ ठेकेदारी के दैत्य माँ भारती की कसमें उठाकर भारत को फिर से विश्वगुरु बनाने के लिए बमक रहे हैं, दूसरी ओर ब्राह्मणवाद की गाद से लदे भस्मासुर अगली धक्का मुक्की के लिए खुसुर-फुसुर कर रहे हैं – इस उबलते हाल में कश्मीर से नार्थ ईस्ट से छत्तीसगढ़ तक जो लोग बेकसूरों पर ढाये जा रहे जुल्म ज़ोर के खि़लाफ़ मुट्ठी तानकर ऊँचा बोलेंगे, उनके दागदार लिबास इतिहास की अरगनी पर एकदिन फैलाये जाएंगे –

ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई
यही दाग थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गए। (फ़ैज़)

नौ फरवरी के रास्ते जेएनयू को नष्ट करने में नह-दाँत देकर जुटी संघी सरकारी साजिशों के खि़लाफ़ समावेशी जेएनयू के लिए, बेहतरी बराबरी के लिए, वास्तविक संरचनात्मक बदलाव के लिए लड़ रहे साथियों से हम कहना चाहते हैं कि आपकी हिम्मत बढ़े, आपकी ताक़त बढ़े, आपका हौसला बढ़े – ‘‘यह लड़ाई चली जाएगी अंत के अंत तक / हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे’’ (विद्रोही)।

 

बृजेश यादव
(लेखक जेएनयू में शोध कर रहे हैं)


Related